जिस पर आधारित टिकी टिकी, सुख दुख की उत्कर्ष ज्योति।
है जीवन की झंकार यही
है जीवन की टंकार यही
तिमिर घटा के बादलों से
रवि रश्मि तू ही ओज ले ले
निराश मनों के घायलों से
तू सिहरनों की खोज ले ले।
है जीवन की चीत्कार यही
है जीवन की फुफकार यही
बुझी बुझी सी राख से भी
जा वह्नि का तू तेज ले ले
पुष्प गर्विता साख से भी
जा कंटकों की सेज ले ले।
लज्जा को भी तू लजा दे
ताण्डव की आवाज सजा दे
घंट घंट में फैले भंड
स्वर विकराल से तू लजा दे।
है जीवन की धिक्कार यही
है जीवन की हुँक्कार यही
तू राह विकल में भगता है
रैन की तू चैन ढहा दे
पावक में भी आग लगा दे
शावक में भी सिंह जगा दे।
हे शांति की कायरता वाले, अशांति का तू अलख जगा दे
विद्रोह कर पुंसत्व जगा दे, अपने अंतर के गह्वर में।
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यह कविता किसी खास के अनुरोध पर प्रस्तुत की गई है। डायरी में इस कविता के लिए कोई समय या दिनांक अंकित नहीं लेकिन वैचारिक बिखराव, शब्द चयन में बचपने, दूसरे कवियों के प्रभाव और स्मृति के आधार पर यह कह सकता हूँ कि इसे ग्यारहवीं या बारहवीं में रचा गया होगा।
कैसा था वह समय! आह!!... किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, जीना इसी का नाम है।
...कभी सोचा नहीं था कि डायरी बची रहेगी और आज इस तरह से पूरे संसार के सामने यह कविता प्रस्तुत होगी। छोटी छोटी अकिंचन सी बातें भी कभी कभी...