गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

पुरानी डायरी से - 20: सुलगन

लवलीन प्राण की दीपशिखा, निकली जिससे संघर्ष ज्योति
जिस पर आधारित टिकी टिकी, सुख दुख की उत्कर्ष ज्योति।
है जीवन की झंकार यही
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है जीवन की टंकार यही
तिमिर घटा के बादलों से
रवि रश्मि तू ही ओज ले ले
निराश मनों के घायलों से
तू सिहरनों की खोज ले ले।

है जीवन की चीत्कार यही
है जीवन की फुफकार यही
बुझी बुझी सी राख से भी
जा वह्नि का तू तेज ले ले
पुष्प गर्विता साख से भी
जा कंटकों की सेज ले ले।
लज्जा को भी तू लजा दे
ताण्डव की आवाज सजा दे
घंट घंट में फैले भंड
स्वर विकराल से तू लजा दे।

है जीवन की धिक्कार यही
है जीवन की हुँक्कार यही
तू राह विकल में भगता है
रैन की तू चैन ढहा दे
पावक में भी आग लगा दे
शावक में भी सिंह जगा दे।

हे शांति की कायरता वाले, अशांति का तू अलख जगा दे
विद्रोह कर पुंसत्व जगा दे, अपने अंतर के गह्वर में। 
________________________________________________________
यह कविता किसी खास के अनुरोध पर प्रस्तुत की गई है। डायरी में इस कविता के लिए कोई समय या दिनांक अंकित नहीं लेकिन वैचारिक बिखराव, शब्द चयन में बचपने, दूसरे कवियों के प्रभाव और स्मृति के आधार पर यह कह सकता हूँ कि इसे ग्यारहवीं या बारहवीं में रचा गया होगा।
कैसा था वह समय! आह!!... किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, जीना इसी का नाम है।
...कभी सोचा नहीं था कि डायरी बची रहेगी और आज इस तरह से पूरे संसार के सामने यह कविता प्रस्तुत होगी। छोटी छोटी अकिंचन सी बातें भी कभी कभी...    

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

दबे पाँव

संध्या काल, अवसाद उसाँस,
न तम न प्रकाश, कौन आया दबे पाँव?
न पैम्फलेट न प्रचार, न कोरियर न अखबार,
झरते नहीं पात, कौन आया दबे पाँव?

न, दिया न जलाओ
न, पास न आओ
मैं चाहता हूँ भरना 
साँझ भरी तनहा साँस
कोई आया है दबे पाँव।

भरी एक अकेली साँस
बैठ गया सट कर पास
पूछा जो, हो क्यों उदास
न बची निज सी बात
उठते सहमे मेरे पाँव।

मेंहदी के भीगे पात
नेह सदृश अदृश्य ओस
करती नहीं भेद
धूल पोते हरसिंगार
रह गया, गया कोई दबे पाँव।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

प्रेम माने टाइमपास

न,
अब नहीं लिखूँगा - 
कुछ नया नहीं कहने को।
तुम मुझे 'बड़ा बोर' कहती होगी-
वही पुरानी बार बार।
 नया क्या सुनाऊँ तुम्हें?
पत्रों में पाखंड है
पर अक्षरों के घुमाव दबाव तले
लुका छिपी खेलती भावनायें
दिख ही जाती हैं।
नि:स्वाद एस एम एस के संक्षिप्त अक्षर
ई मेल में सजे सँवरे सन्देश
फेसबुक ट्वीटर पर शब्द सीमा में सिकुड़े 
जज्बात- 
मुझे रास नहीं आते 
तुम कहती होगी - दकियानूस! 
अ क्रीचर लिविंग इन पास्ट। 
हाँ, मैं भूत में ही जीता हूँ - 
फुटपाथ पर अब भी ठिठुरन है।
बैल हों या ट्रैक्टर
खेतों में अब भी गोल गोल भटकन है। 
दफ्तर में टेबल के नीचे
अभी भी खाली जगह है। 
अर्जियाँ उड़ गायब होती हैं वहाँ से,
बिना वजन के अभी भी। 
होठ अब भी वैसे हैं
पर मुस्कान की लकीरों में
रिसेप्शनिस्ट स्वागत है 
मुझे बगल में रखे फूलदान की
फ्लेवरी गन्ध ध्यान में आती है।
दुनिया अब भी पुरानी ही है 
बस प्रदूषण बढ़ गया है,
तुम मॉडर्निटी को पकाती रहो 
मुझे उसे ज़िन्दा रखना है 
जो ऐसी आँच में मर जाता है।
दकियानूसी ज़रूरी है
वर्ना मॉडर्न होते होते 
दुनिया ही नहीं बचेगी।
...हाँ, इसे इसलिए लिखा 
कि कल सुना किसी को कहते 
'प्रेम माने टाइमपास'।
 


बुधवार, 22 दिसंबर 2010

नहीं होती

यूँ बेतहाशा भागने से कवायद नहीं होती 
रोज घूँट घूँट पीने से तरावट नहीं होती।

चुप रहते जब कहते हो क्या खूब कहते हो 
लब हिलते हैं, आवाज सी रवायत नहीं होती।

ज़ुदा हुआ ही क्यों कमबख्त हमारा इश्क़ 
आह भरते हैं हम और शिकायत नहीं होती।

रीझते हो रूठने पर, मनाना भूल जाते हो 
यूँ मान जाते हम तो ये अदावत नहीं होती।

अदावत ऐसी कि बस तेरा नाम लिए जाते हैं 
दुनिया में ऐसे इश्क पर कहावत नहीं होती।  

रविवार, 19 दिसंबर 2010

अनगढ़ गीत

आज गाऊँगा 
वह अनसुना गीत 
जिसे सुना 
याद की लू झुलसते। 

नमी 
पनीली आँखों में
होठों की नरम लकीरों में। 
साँस तपिश  
होठ सूखे
चुम्बन भिगोए  
आँच सुलगते। 

देह घेर
हाथ फिसले 
छू गए स्वेद 
वस्त्र शर्माते रहे। 
न समझे कि  
चिपकी उमस, 
शीतल हवा चली 
जो शाम ढलते।   

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बड़े नासमझ हो।

सच कहूँ? 
मुस्काते भोले लगते हो 
कविता कहते बोदे लगते हो - 
मैं कैसी लगती हूँ? 

मुझे भोला या बोदा नहीं बनना
मुझे कुछ नहीं कहना। 

तो क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?

समझ का फेर है।
न समझो वही ठीक है। 

क्यों? 

समझोगी तो 
न कविता होगी और न मुस्कान। 
मैं यूँ ही इस उधेड़ बुन में रहूँगा 
कि तुम कैसी लगती हो? 
और तुम चल दोगी कहते हुए - 
बड़े नासमझ हो। 

   

रविवार, 12 दिसंबर 2010

...वश में नहीं

Untitled
सिल गए हैं 
बोलना अब भी नहीं
सुनना कैसे हो?
बोलना तब भी नहीं था
जब अधखुले होते थे
मैं सुन लेता था बहुत कुछ
बस आँखों से।
तुम कहती थी-
एक कान से सुन दूसरे से निकाल देते हो -
तुमसे कुछ कहना बेकार है।
मैं पूछता था -
तुमने कहा था क्या कुछ?
होठ ऐंठ कर रह जाते
बस मिल जाते
कहना कैसे हो?




soul-mate

हाँ कहा था कभी
"मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता।"
जीवित हूँ तुम्हारे बिना
जान चुका हूँ जीना मरना अपने वश में नहीं।
अपनी कहो
जीवित कैसे रह गई?
साँसें हमारी एक हैं
क्या इसलिए?
बात वही रह गई न!
"मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता।"
वाकई जीना मरना अपने वश में नहीं!

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

लिखा कागद कोरा

मौन ही रहे हम तुम, कहना औपचारिकता है
बता देती हैं साँसों का स्पर्श कर आती हवाएँ।

समाज कहता है परिणय कैसा जिस पर उसकी मुहर नहीं
साँसों में बसे खुले उड़ते कपूर, जलने जलाने वाले क्या जानें?

दूरियाँ जमीन की, बात की, मुलाकात की, याद की
उनकी क्या चिंता जिन्हें न तुमने सोचा और न मैंने।

मेघ बरस कर चले गए और बूँदें दूब पर अटकी हैं
अब नहीं गिरेंगी आँखों से, उड़ जाने की प्रतीक्षा है।

कभी चुप सी सन्ध्या में घर के एकांत कोने में
मेरे लिए दिया जला देना, फेसबुक पर अन्धेरा है।

आज तक न तुमने ढूँढ़ा और न मैंने
न कहना हम ग़ायब ही कब हुए थे?

जाने कैसी लहर उठी है इतने वर्षों के बाद
भूकम्प नहीं झील में सुनामी उफन आई है।

रोज लिखता हूँ जाने कितने पन्नों की लम्बाई है
बिन बदरी बरसात में कागज कोरा ही रहता है।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

!

मित्र! 
तरुगन्ध आह्वान 
ओस भीगे पत्ते
नंगे पाँव
लुप्त चरम चुर
ढूँढ़ें 
गन्ध स्रोत

पुन: बालपन
वारि नासिका
शीतल मलयानिल
घास पुहुप चुन 
सूँघे 
छींके 
छूटे कुछ हाथ
सगुन सा 
कौन आए 

ममता छूटी
घर पर 
सुर सुर
माताएँ 
खीझ 
रीझ
आयु
स्सब भूलीं 
याद दिलाएँ

लोट पोट 
श्वान शिशु 
दुलार 
डाँट फटकार 
पिता प्यार 
लुटाएँ
बीत गई 
रीत गईं 
धुँधली आखें 
मनुहार
मनाएँ 

मित्र! 
तरुगन्ध आह्वान 
झूलें 
समय झूलना 
डार डार 
पात पात 
जीवन 
ओल्हा पाती 
पात पात 
हिल जाएँ 
खिल जाएँ 
चलो ! 

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

डीहवारा की उपलब्धि से आगे...


डीहवारा की उपलब्धि से आगे ... 


नहीं रे! उपलब्धि की नहीं चाह मुझे
प्रेमतापस हूँ, भटकता रहा युगों से
उसे ढूँढ़ता जो मेरे जैसा हो और 
जिससे मैं अपनी बात कह सकूँ। 

तुम्हें देखा तो लगा जैसे सब पाया
चोट छील नहीं, वे सिर्फ मेरी बाते हैं 
जो मैंने की हैं - तुमसे जो अपने लगे।

तुम गढ़ा गए,उकेरा गए उन बातों से 
तो ज़रा पूछो अपने प्रस्तर अंत: से
प्रेमिका जो अब सामने आई है 
क्या वही नहीं जिसे तुमने चाहा था? 
जिसे सँजोए रखा इतने दिनों से 
आंधियां सहते
तूफान तोड़ते
मेघ रीते 
घाम जलते 
चन्द्र रमते! 

तुम्हारा तप सफल हुआ 
जैसे मुझ तापस का। 
जन्मों के पुण्यकर्म फलते हैं 
तब मिलते हैं दीवाने दो
तब दिखता है ऐसा कुछ। 

उत्सव मनाओ - 
तप नष्ट नहीं, यह सिद्धि है
हमारी उपलब्धि है,
जो मिल गई अनायास -   
प्रेम में ऐसे ही तो होता है।
नहीं, ऐसा लगता है
भटकते युग याद कहाँ रहते हैं! 

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मौन कौन?

कवियों के गीत 
प्रियतम रूप। 
सराहोगी? 
मेरा मौन! 

धरा ने बुलाया
और सिमट गई।
पुकार पुकार 
थका आसमान
फिर बरस पड़ा। 
बोल सकता हूँ,
बरस नहीं सकता।
तुम कम से कम 
पूछ तो लेना - 
आया कौन?

काँच की खिड़कियाँ 
अब एकतरफा हैं
तुम आर पार देख सको 
मैं नहीं।
क्यों गीत गाऊँ? 
मैं स्वयं तो मधुर 
पर तुम्हारे लिए 
बस हिलते होठ 
मौन।

रेस्ट्रॉं में रश है 
कशमकश है। 
जिस टेबल पर 
तनहाई है
रात घिर आई है।
सर सर छुवन 
चटकी है अगन 
कपड़ों में।
बैठने पर 
न पूछा करो मुझसे -  
सिंथेटिक कौन? 

वह खिलखिल 
वह अदा 
हँसना बेबात 
सुबकना  
बिना बात। 
चुप रहा बहुत 
जब बोलने लगूँ 
वैसी ही रहना।
न न्यौतना - 
मौन।

रविवार, 21 नवंबर 2010

बात अकेली सी

बहुत हुए गुनाह बेखुदी में,अब क़यामत का आगाज़ हो
पढें अपनी अपनी हम तुम,जब शर्मनाक कोई बात हो।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

पूजा

दीवार पर कील से टँगे भगवान 
ठीक नीचे खूँटी पर टँगा पसीना
धूप अगरबत्ती? 
नहीं रे, पूजा तो हो गई!
रोटी ठंडी हो रही है,
प्रसाद पा ले। 

रविवार, 14 नवंबर 2010

तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ? - 1

तुम जो आज आई हो
इस घर की देहरी लाँघ
वह देहरी जो ऊँची थी, बहुत ऊँची,
हमारे प्रेम से भी –
आज तुम्हारे स्वागत में झुकी है
ऐसी कि सगुन साटिका से अनुशासित
तुम्हारे रुन झुन कदम भी उसे लाँघने में सक्षम हैं।  
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ?

कलंकिनी नहीं तुम अब, लक्ष्मी हो
जिसके संतति धन से
परम्परा के ब्याज चुकाए जाएँगे
और मूल मन में रह जाएँगे
चमकते सिक्कों से कुछ ऐसे धन –
छिप कर मिलना
हताश होना
साथ साथ मरने की कसमें
पिताओं के क्रोध
माताओं की घृणाएँ
ममता की बलाएँ
जमाने की थू थू।
अब जब कि धन धन में
सब धन्य हैं
तुम्हारे ऊपर कौन धन वारूँ?
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ?  

तुम्हारे कदम जमीन पर न पड़ें
इसलिए माँ ने डलियाँ बिछाई हैं
दस्तूर नहीं, सचमुच हरसाई हैं।
मुक्त चलो मेरी प्रियतम!
भू से आँसुओं की कीच अब सूख चुकी है
हम मिल गए हैं
और कोई अनर्थ नहीं हुआ!  
नक्षत्र वही हैं
सुबह शाम वैसी ही होती हैं
बच्चे अब भी स्कूल जा रहे हैं
दो और तीन अभी भी पाँच हैं
सूरज चाँद अभी भी चमकते हैं
और  
चाँदनी सुहाग कक्ष की छत को भी नहलाएगी
ठीक वैसे ही जैसे पापी आलिंगन को नहलाती थी।
तो बताओ
इस संस्कार स्नान के बाद
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ? (जारी)


चित्राभार: http://media.photobucket.com

शनिवार, 13 नवंबर 2010

बैठो मेरे पास



बैठो मेरे पास कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं,

गर पूछोगे तफसील तो कह दूँगा - मुझे कुछ नहीं पता।


बुधवार, 10 नवंबर 2010

तब तक प्रतीक्षा करो न!

तुम्हारे पत्र दिन में नहीं पढ़ता 
उजाले में आँखें चौंधियाती हैं 
और सूरजमुखी ऐंठने लगते हैं। 

तुम्हारे पत्र रात में नहीं पढ़ता 
रजनीगन्धा सी महक उठती है
यादों के साँप बाहर आने लगते हैं।

सच कहूँ तो आज तक उन्हें खोला बस है। 
'मेरे प्रियतम' और 'तुम्हारी तुम ही' 
पढ़ कर बन्द कर दिया है। 

बीच के अनपढ़े कोरेपन ने 
जाने कितनी ही कवितायें रचाई हैं। 
कहोगी तो पढ़ लूँगा -
जब दिन नहीं होगा
जब सूरजमुखी फूल नहीं खिलेंगे। 
जब रात नहीं होगी 
जब रातरानी नहीं फूलेगी।
जब 
साँप विलुप्त प्रजाति हो जाएँगे। 

तब तक प्रतीक्षा करो न! 
उत्तर तो देता हूँ न!
तुम भी नहीं पढ़ पाती हो क्या? 

रविवार, 7 नवंबर 2010

न सुर न ताल, बस मुक्तक

न सूर्य रचे न चन्द्र रचे 
रजनी के श्यामल वस्त्रों पर, उल्का के पैबन्द रचे ॥3/4॥
शब्द नहीं न अर्थ सही, अलंकार की कौन कहे
रोज रोज के घावों को, कविता में हम खूब सहे ॥1॥
आग जल रही हवन हो रहा, न देव दिखें न लेव दिखें
सामधुनों में रोदन उभरा, आँखें मलते उद्गीथ दिखे ॥2॥
हूँ हारा मन का मारा, पर साँसों में संगीत सजे
मज़दूरी के सिक्कों में जब, बाल हँसी की झाल बजे ॥3॥
आह तुम्हारा वाह तुम्हारा, हम मौनी मनमीत भले
कंठ भरे तब आ जाना, चुपचाप ढलेंगे साँझ तले ॥4॥
द्वार हमारे भीर जुटी है, टुकड़े टुकड़े शववस्त्र मिले
जीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले ॥5॥    
     

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

आत्मदीपो भव

आत्मदीपो भव!
अप्प दीपो भव!
अपने प्रकाश स्वयं बनो। 
अपनी रोशनी तुम्हें खुद तलाशनी होगी। 
Be your own torch bearer. 

चाहे जैसे कहो, लब्बो लुआब ये कि करना खुद को ही है। 
तो आज दिया बन कितना जलने का प्रोग्राम है? 

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

आज के दिन कोई रोता है भला?

जल ले मन दीपक सुघर, बाती नहीं न तेल सजल, जल ले मन अँजोर जोर। 
कब था सब शुभ धवल, कब थे नहीं काले जलद, न बुझ, जल मन मनजोर।
गोधूलि होंगी राहें विकल, चाह होगी पर धीर बरज, लहक टपकी आँख कोर।
जल ले मन अँजोर जोर मनजोर टपकी आँख कोर।

भूख बैठी डार पर 
घुघ्घू चले शृंगार पर 
लक्ष्मी लुटे लौंजार पर। 
क्या हुआ जो छ्न्द टूटे 
क्या हुआ जो बन्द फूटे 
तुम जमे रहो जेवनार पर 
शान पट्टी मार कर। 

खाँसता जो गीत किसका मीत
निचोड़ ले हर बूँद ऐसी प्रीत 
यह जीना चबेना माल पर 
जो मैल बदबू हर साँस पर 
चढ़ गई ज़िन्दगी शान पर 
तुम जमे रहो जेवनार पर 
टँगे रहो निस्तार पर। 

करूँ क्या मौसम तो आएँगे ही, हँस लूँ, एक दिन फुलझड़ी छोड़ लूँ 
आरती सजा पूज लूँ उल्लुओं की मात को।
हाँ रहेंगे हमेशा मैल बदबू 
खाँसते गीत होंगे शान पट्टी निस्तार पर 
नाचता दलिद्दर होगा हमारी ताल पर 
साल भर, 
दीपावली तो फिर भी आएगी ही 
मना लूँ।
न कहो
जल ले मन अँजोर जोर मनजोर टपकी आँख कोर।
आज के दिन कोई रोता है भला? 

रविवार, 31 अक्टूबर 2010

थोड़ा ठहरने दे

चलेंगे फिर साथी!
थोड़ा ठहरने दे,
मुड़ कर पीछे देख तो लूँ।

बाढ़ वर्षों से रुकी थी
तुम मिले
और बाँध दरका
फिर टूट गया,
बह गया बहुत कुछ।

कीच भरी जमीन पर खड़े हो
टूटन को देखना चाहता हूँ
वह जो बहे जा रहा है
क्या है उसकी पहचान?
क्या परिणति?
क्यों?
कैसे?
कहाँ?
क्या है सार्थकता उसकी?
क्या खोया क्या पाया?
क्या शेष है/रहा? 

थोड़ा ठहरने दे,  
मुड़ कर पीछे देख तो लूँ। 

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

साथी हाथ थाम

साथी हाथ थाम। 

भोर के द्वार पर प्राची में दीप है
पसर गया लहलह माँग का सिन्दूर है। 
बटुर गया समय,
देह के वितान पर सफेदी भरपूर है।
कल मेंहदी रचाई थी! 
साथी हाथ थाम।

धूप भीगी और सूख गई, ढलना है।
हो चुका विस्तार बहुत, सिकुड़ना है।  
क्या हुआ जो मुक्ति की राह में, 
नाच रहे प्रेत हैं, चलना है। 
साथ होना काफी नहीं 
साथी हाथ थाम।

ये जो दरक रही है, छत नहीं, हम ही हैं ।
ये जो मौन है, सम्वाद नहीं, हम ही हैं। 
ये जो रोटी है, स्वाद नहीं, हम ही हैं। 
मेरे भी काँप रहे हैं, तुम्हारे भी काँप रहे हैं।
साथी हाथ थाम।  

पूर्णिमा है, ठंड है, एकांत है। 
मन के ज्वार फिर भी शांत हैं 
बहुत दिन हो गए दाह से सीझे हुए ।
कपोल पर कपोल तो ठीक है
पर साथ स्वेदहीन है 
साथी हाथ थाम। 

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

एक बार जाल और ... मिलने जुलने का सलीका

अपनी बहुत सुना लिए, आज दो दूसरों की (मुझे बहुत बहुत पसन्द हैं):

बुद्धिनाथ मिश्र 
श्री ललित कुमार के सौजन्य से यह गीत पूरा मिल गया:




गीत 

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो। 

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है,
हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है,
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है, 
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे, 
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है,
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे? 
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

कुमकुम सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है,
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
___________________________________ 

अज्ञात(आप को कवि का नाम ज्ञात हो तो बताइए)
देवता है कोई हममें न फरिश्ता कोई,
छू के मत देखना हर रंग उतर जाता है। 
मिलने जुलने का सलीका है जरूरी वर्ना
चन्द मुलाकातों में आदमी मर जाता है। 

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

पसीना

(1) 
पसीना 
टेबल पर टपकता है। 
खेत में टपकता है। 
फर्श पर टपकता है। 
दिन भर काम करते थक जाता है -
बिस्तर में रिसता है।

(2) 
पसीना 
निकलता निर्गन्ध है ।
हवा, इत्र, फुलेल, साबुन
बिगाड़ देते हैं आदत। 
कुछ भी कर लो 
गन्धाता रहता है। 


(3) 
जब डूब जाता है पैसा मार्केट में। 
जब परीक्षा के सवाल
किताबी याददाश्त गुम कर देते हैं।
जब फुलाई सरसो 
रातो रात लाही से मार जाती है। ...
बिना परवाह किए कि 
बाहर जाड़ा है, गर्मी है कि बरसात 
पसीना निकलता है, 
हवा से जुगलबन्दी करता है 
और धीरे से दे जाता है
फिर से उठने लायक साँस।


(4) 
बाहर की दिन भर की चखचख
रोज गन्दे होते घर की सफाई
धीरे धीरे घिसते रहते हैं रिश्ते को।
इससे पहले कि रिश्ता दरके  
पसीना रातों को प्रीत के लेप लगाता है 
और सुबह तैयार हो जाती है - 
एक दिन भर चखचख 
एक दिन भर गन्दगी 
झेलने को।