बुधवार, 29 दिसंबर 2010

दबे पाँव

संध्या काल, अवसाद उसाँस,
न तम न प्रकाश, कौन आया दबे पाँव?
न पैम्फलेट न प्रचार, न कोरियर न अखबार,
झरते नहीं पात, कौन आया दबे पाँव?

न, दिया न जलाओ
न, पास न आओ
मैं चाहता हूँ भरना 
साँझ भरी तनहा साँस
कोई आया है दबे पाँव।

भरी एक अकेली साँस
बैठ गया सट कर पास
पूछा जो, हो क्यों उदास
न बची निज सी बात
उठते सहमे मेरे पाँव।

मेंहदी के भीगे पात
नेह सदृश अदृश्य ओस
करती नहीं भेद
धूल पोते हरसिंगार
रह गया, गया कोई दबे पाँव।

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