मंगलवार, 31 अगस्त 2010

तुम्हारे साथ अच्छी बीती

दूध - जीवन धन 
मालिश - स्वस्थ तन 
दुलार, डाँट - स्वस्थ मन। 

प्रथम चुम्बन - सृष्टि लास्य का पाठ 
निहाल होना - जीवन में उद्देश्य
रूठना - संसार से निपटने के सूत्र 
समर्पण - स्वार्थ से मुक्ति 
प्रसव - बचपन वापस। 

साथ साथ चुप चाप - मनन 
चश्मा ढूँढ़ना - बुढ़ापे की लाठी।

मरण - जीवन सिद्धि।
दाह संस्कार - फेरों की कसम। 

तन मन
लास्य
उद्देश्य 
सूत्र 
मुक्ति 
बचपन 
मनन
बुढ़ापा 
सिद्धि।

चुप प्रतीक्षा में हूँ 
हँसा हूँ 
तुम्हारे साथ 
कैसे बिता दिया स्वयं को! 
नारी! 
चुप प्रतीक्षा में हूँ 
तुम्हारा एक स्पर्श बाकी है -
दाह से मुक्तिदायी  
हिम शीतल। 
तुम्हारे साथ 
अच्छी बीती।

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

नाराज़ न हो बेटे! नाराज़ न हो।

कल अम्मा पिताजी वापस गाँव चले गए। आने से पहले ही वे वापसी के रिजर्वेशन को पक्का करते हैं।   प्रात:काल इस घर में मानस पारायण नहीं हो रहा। किशमिश का प्रसाद आज कोई नहीं खिलाएगा। यह घर उन्हें रोक नहीं पाता।

प्लेटफॉर्म पर उन लोगों के साथ नहीं बैठा और न डिब्बे में। डर था कि कहीं फूट न पड़ूँ। क़रीब रोज ही प्रत्यक्ष या परोक्ष, मरने की बातें उनके मुँह से सुनी हैं। मैं तो उनके साथ साथ 'जो चाहो उजियार' या 'पीपली लाइव' देखते या बातें करते खुश होता रहा लेकिन गए सावन तीन परिचितों ने अपने स्वस्थ वृद्ध पिता खोये हैं।

आज प्रात: एक बहुत पुराने पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन की याद हो आई। माता पिता के आयुजनित दु:ख कोंचने लगे और कुछ कुछ समझ में आया कि वे क्यों मरने की बातें करते हैं। ...

हमारे मरने की बात पर
नाराज़ न हो बेटे, नाराज़ न हो।

सुबह उठने के पहले
खाट नहीं, बूढ़ी हड्डियाँ चटखती हैं
चिन्ता होती है कि एक दिन और जीना है।
ऐसे में चलते साल के गुज़र गए दिन
हम गिनते हैं - कितने बीते?
गिनती भूल जाती है
और हम मरने की बातें करते हैं
बेटे, नाराज़ न हो।

रोज प्रात को सूरज उगता है
दिन चढ़ता है और फिर ढलता है
रोज तुम्हारी माँ कुछ किरणें माँग लेती है।
रात में ग़ायब नींद आँखें लिए
तुम्हारे लिए हम बुनते हैं
उनसे आशीर्वादों के झिगोले
और पठा देते हैं घटते बढ़ते।
जब हाथ काँपने लगते हैं
और किरणें बुन नहीं पाते
तो हम मरने की बातें करते हैं।
मेरे बेटे नाराज़ न हो। 

अब की गाँव आना
तो गेट पर खड़े हो जोर से आवाज़ देना
तुम्हें सुनने को बहरे कान तरसते हैं
धुँधलाई आँखों से पहचाना नहीं जाता।
खड़े रहना चुपचाप
जब मैं गेट खोलने आऊँ।
कदमों का साथ अब धड़कने नहीं देतीं
दिल में दर्द उठता है
भाग कर तुम्हें गले जो नहीं लगा सकता!
ऐसे में बैठते ही अगर
हम उठने उठाने की बातें करें
तो नाराज़ न होना।

अपने घुटनों के दर्द का अच्छा इलाज़ कराओ
बड़ी तमन्ना है कि तुम्हारे कन्धे पर हो
हमारी अंतिम यात्रा।
कहीं ऐसा न हो कि उस दिन
तुम्हारे घुटने साथ न दें!
हमारे इस स्वार्थ पर
बेटे! नाराज़ न होना।

अपने बेटे से कहना
बाबा तुम्हें बहुत चाहते हैं
लेकिन झिड़कना रोक नहीं पाते।
उसे समझाना कि चौबिसो घंटे
जब सिर में चक्कर रहता हो
तो आदमी चिड़चिड़ा हो जाता है।
उसके साथ गेंद खेले भी तो कैसे?
उसकी 'कम ऑन बाबा' की पुकार का साथ
ढीली कमान सरीखी रीढ़ नही दे पाती।
ऐसे में बहू से
उसकी शिकायत करते हैं
"बड़ा शैतान है।"
उससे कहना - इस बात पर नाराज़ न हो।

हर बार तुम्हारे पास आने से पहले
हम वापसी के रिजर्वेशन की तसल्ली करते हैं
शहर में नहीं रहा जाता बेटे!
जिस पीपल की छाँव में
तुम्हारे बाबा की निशानियाँ हैं
जिन खेतों की मेड़ों पर उनके
कदमों के निशान हैं -
उनसे दूर नहीं रहा जाता।
क्या करोगे बेटे!
तुम्हारा पिता जो सिमटा रहा
जो महत्त्वाकांक्षी नहीं रहा
सिकुड़ने की इस उमर में
अब फैलाव कहाँ से लाये?
सुखी रहो बेटे!
तुमने सीमाएँ तोड़
अपने पंख फैलाए हैं
हमारे जाने के बाद
हमारी तिथियों के दिन
तुम दोनों गाँव आ जाया करना।
दरकती ईंटों के बीच
भटकती साँसों को एक दिन के लिए ही सही
ठहराव तो मिलेगा!
बहू से कहना कि
दिया जला देगी उस खाली जगह
जहाँ तुम्हारी माँ और तुलसी
बातें करते हैं।
उसकी पायल की रुनझुन से डर कर बेटे!
दरकते घर में प्रेत नहीं आएँगे।
इस काम के लिए कोई काम रुके
तो नाराज़ न होना।
तुम तो प्रबन्धक हो न!

नया लिखने की उमर नहीं
पुराना बाँचने की उमर है
और आँखें धुँधली हो चली हैं
मन साथ नहीं देता
जब बाँचा नहीं जाता
तो हम मरने की बातें करते हैं।
रोज़ रोज़ मरने से
क्या अच्छा नहीं एक ही बार मर जाना?

हमारे मरने की बात पर
नाराज न हो बेटे, नाराज़ न हो।

रविवार, 22 अगस्त 2010

आज मैंने कलाई पर क्रॉस बनाया है।

मेरे कानों में तुमने कभी फुरफुरी नहीं की
मेरे सिर से
वो जुएँ जो थे ही नहीं,
तुमने नहीं निकाले।
कभी तुम्हारी चोटी पकड़ नहीं खींचा
और न संग संग अमिया खाए।
मेरी अनाम दीदी!
बरसों बाद आज
तुम्हें याद किया है।
पुराने रिश्तों की चुभन का मौसम है
दीदी, तुम्हें याद किया है।

सरकारी स्वास्थ्यकेन्द्र पर
वह हमारा मिलना पहली बार!
मुझे लिपटा लिया तुमने अचानक
सब हुए थे हक्का बक्का।
सिर को चूमने के बाद
सीने पर क्रॉस बनाने के बाद
पर्स से निकाल सबको तुमने एक फोटो दिखाई थी -
मेरा थॉमस है
देखो! बिल्कुल ऐसा ही है।
सबको अचरज हुआ था।

और बढ़ता गया तुम्हारा बहनापा
टिफिन के समय मैं भाग कर आता
चट करता तुम्हारी बनाई कुकीज
और अनाम व्यञ्जन।
चुपचाप तुम निहारती रहती
फिर धीरे से आँखें पोंछ कर कहती
"आज श्रीकांत बहुत अच्छा खेला।
तुमने सुना क्या?"
मैं मुँह खोलता और गावस्कर की बात करता।
तुम गुस्सा हो जाती
और मैं भागता कपिलदेव की गेंद सा।

यूँ ही दिन उड़ गए
केरल का परवाना तुम्हारे  हाथों में था
उस दिन तुम बहुत खुश थी
तुम्हारे जाने की बात पर जब मैं चुप हुआ था
तुमने मेरी कलाई पर क्रॉस बनाया
"देखो, इसमें दो लाइने हैं
एक थॉमस है और एक तुम।
बस ऐसे ही याद कर लिया करना
याद करने को बहाने आ ही जाते हैं।"

मैं भूलता चला गया।
कभी कभार खबर मिलती
कि तुमने मेरा हाल पुछवाया है
लेकिन मैंने कभी तुम्हें सन्देश नहीं भेजा।
इंजीनियरिंग में चयन के हफ्ते भर में
तुम्हारी खुशी, तुम्हारी शुभकामना का
सन्देशा आया था -
बस वह आखिरी था।

आज वर्षों बाद तुम क्यों याद आई?
अनाम दीदी!
तुम्हारा नाम तक याद नहीं रहा
कहीं ग्लानि है, गहरी सी ।

आज समझ में आया है -
तुम्हारे जाने के बाद
क्रिकेट कमेंट्री सुनना मैंने क्यों छोड़ा था ?

आज तुम्हारे बारे में लिखते
न छ्न्द हैं, न शिल्प है, न शब्द हैं
अलंकार, बिम्ब, प्रतीक कुछ नहीं
सपाटबयानी है।
पर मेरे लिए यह कविता है-
अनाम।

कहीं क्षीण सी आस है
शायद तुम इसे पढ़ पाओ -
केरल में हिन्दी साइट?
तुम इंटरनेट पर आती भी हो?
सवाल बेमानी हैं
मुझे चमत्कार की प्रतीक्षा है।

आज पहली बार
पहली बार
मैंने  कलाई पर क्रॉस बनाया है।

रविवार, 15 अगस्त 2010

उरूजे क़ामयाबी पर ... जहाँ सेंध लगती है।

15 अगस्त 1947 से पहले किसी दिन 

उरूजे क़ामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा
रिहा सय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।
चखायेंगे मज़ा बरबादिए गुलशन का गलची को
बहार आ जायेगी उस दिन जब अपना बागवाँ होगा।
ऐ दर्दे वतन हरगिज जुदा मत हो मेरे पहलू से
न जाने वादे मुरदिन मैं कहाँ और तू कहाँ होगा।
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तहाँ होगा।
शहीदों के मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
(अशफाक उल्ला खाँ, 18 दिसम्बर 1927, फाँसी से एक दिन पहले ?) 
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15 अगस्त 1947 के बाद किसी दिन 

भारत -
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कभी भी प्रयोग किया जाए
बाकी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।

इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी वृक्ष की परछाइयों से
वक़्त मापते हैं।
उनके पास, सिवाय पेट के
कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं।
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है -
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ।
उसे बताऊँ
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से सम्बन्धित नहीं
वरन खेतों में दायर हैं
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है।
(अवतार सिंह सन्धू 'पाश', प्रथम काव्य संग्रह 'लौहकथा' से) 
      

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

अनुष्टुप घबराने लगे हैं

तब जब कि अनुष्टुप घबराने लगे हैं
गालियाँ, सार्थक अभिव्यक्ति या दोनों?
या कुछ भी नहीं ??
मेरे कवि ! तुम्हें पुकारा है।

सावन की फुहारें हैं या
भूमि पर नाचते ढेर सारे आसमान ?
थिरकनें है झमाझूम
 झड़ियों में बयान
मन्द घहरती तान पर
कजरी के गान पर
झूमने को तुम्हें पुकारा है |

देश भदेस है
गोपन निर्लज्ज हो
वीथियों में घूम रहा ।
हर चौराहे की प्रतिमा पर
अश्लील से पोस्टर हैं
हम हैं ठिठके
शब्दकोश रिक्त हैं
अर्थानर्थ तिक्त हैं ।
बयानबाजी के खिलाफ
मृदु अर्थगहन गान को
तुम्हारी राह मैं तक रहा।

मेरे कवि! आओ न !!