गुरुवार, 24 मई 2012

बारह बरस!

 
... तो जब शाम होगी, थकन ढलान होगी
खोलूँगा वह पीला पड़ा कागज।
जिसे कहती थी तुम पहला प्रेमपत्र
जिसके नीचे लिखा अनाम सादर।
बारह बरस पुरानी स्कॉच
जिसकी रंगत समेट रहा होगा दुकान
बूढ़ा एक सूरज नशे से परेशान
हाथ हिला उसे करूँगा सलाम। 
ढोते बढ़ती उम्र के सामान
रोज थोड़ा थोड़ा खुश होने से है बेहतर
दुख की झिरझिरी लूँ समेट सह
खत पढ़ते हो लूँ तर
आँखों से सादर।
होठों के बादर
उमड़ें थर थर
थोड़ा लूँ बरस
बारह बरस!



सोमवार, 7 मई 2012

पावक



जम गये श्लेष्म कण साँस साँस, सकुचा प्राण स्थान वायु गति पड़ी मन्द 
हिचकियाँ करतीं रह रह आह्वान 
उमगो अग्नि देह में शमि घर्षण 
दौड़ो उद्धत बन जीवन धावक
हे पावक! 

प्रकृति तूलिका साक्षात रंग, रक्त पीत श्वेत आँच, आह जीवंत
आओ कि भीतर सजा है श्मशान 
जल उठे मृत माया करूँ तर्पण 
छुओ मुझे हर अंग द्रुत शावक 
हे पावक! 

आहुति है शेष, शेष है उमंग, वृथा सभी जो देह न दे अंत तक संग 
असमय क्यों पोतूँ भस्म ललाट 
अभी शेष है पूर्ण समर्पण 
मुक्त करो रोग से, हे पावक! 
हे पावक!!

शुक्रवार, 4 मई 2012

पानी!

पानी!
लहरो।
अंतरघट के बन्द कोष्ठ
सब थिर है रिक्त अतल सूखे हैं होठ।

पानी!
लहरो।
बाढ़ अगम हिय खार समुद्र सम
तनु कर तन सान्द्र साध संतुलन सम।

पानी!
लहरो।
निर्मल, मल पर कर मल मल चोट
झंझा हर क्षण हर दिन की मिटे प्रलय ओट।

पानी!
लहरो।
दाह दहन बूँदें छ्न छ्न उड़ती भाप
बरसो हों शीतल सूर्य चन्द्र और नभ संताप।

पानी!
लहरो।
जम गया भूत युग हिम स्फटिक
मुक्त करो जीवन संकुल, श्रम को आतुर नाविक।  

बुधवार, 2 मई 2012

काल की उछाल


सीलिंग पर चिपकाये स्फुरदीप्त तारागण निहारिकायें 
प्रकाश बुझा और तन गया आकाश बेडरूम में 
सोचा कि बताऊँ बच्चे को अनंत की कुछ बातें 
लेकिन सो गया था वह गहरी नींद में।

गर्मियों की खुली छत, हवा मद्धिम
तना चम चम अद्भुत अन्हरिया आसमान 
पिता के साथ लेटना छत पर पूछने को ढेरों सवाल 
वह बताते और मैं सुनता, न थकता और न सोता 
जब तक कि वह 'आदेश' न दें। 

काल की उछाल एक पीढ़ी में ही कितनी बदल जाती है!