गुरुवार, 12 मार्च 2015

तुम जो नहीं

ढूँढ़ता हूँ कैमरे अंतर्जाल
जो उतार सकें निखार के साथ
मेरे चेहरे की हर रेखा हर भाव
उतार चढ़ाव झुर्रियाँ खिंचाव
दीप्त प्रकाश।

युग बीते मिले अन्धकार
तुम्हारी अंगुलियाँ अद्भुत चित्रकार
गढ़ती थीं निज मनोलोक
मेरे विस्तार।
 
तुम जो नहीं
ढूँढ़ता हूँ ऐसे निर्जीव
कर सकें जो मुझे सजीव
यह नैतिक अर्जित ज्ञान प्रकाश
हम तो थे अनैतिक अन्हार!