मंगलवार, 26 जनवरी 2010

उदास द्विपदियाँ -26 जनवरी पर

जिस दिन खादी कलफ धुलती है।
सजती है लॉंड्री बेवजह खुलती है।

फुनगियों को यूँ तरस से न देखो,
उन पर चिड़िया चहक फुदकती है।

बहुत है गुमाँ तेरी यारी पर दोस्त,
सहमता हूँ जो तुम्हारी नज़र झुकती है।

ये अक्षर हैं जिनमें सफाई नहीं
आँखों में किरकिर नज़र फुँकती है।

गाहे बगाहे जो हम गला फाड़ते हैं,
चीखों से साँकल चटक खुलती है।

रसूख के पहिए जालिम जोर जानी,
जब चलती है गाड़ी डगर खुदती है।

आईन है बुलन्द और छाई है मन्दी,
महफिल-ए-वाहवाही ग़जब सजती है।

साठ वर्षों से पाले भरम हैं गाफिल,
जो गाली भी हमको बहर लगती है।

सय्याद घूमें पाए तमगे सजाए
आज बकरे की माँ कहर दिखती है।

पथराई जहीनी हर हर्फ खूब जाँचे,
ग़ुमशुदा तलाश हर कदम रुकती है।

खूब बाँधी हाकिम ने आँखों पे पट्टी,
बाँच लेते हैं अर्जी कलम रुकती है।

रविवार, 24 जनवरी 2010

तुम्हारी कविताई


पारदर्शी पात्र
सान्द्र घोल।
तुमने डाल दी 
एक स्याही की टिकिया
धीरे से।
रंग की उठान
धीरे धीरे 
ले रही आकार।

जैसे समिधा 
निर्धूम प्रज्वलित,
समय विलम्बित
बँट गया फ्रेम दर फ्रेम।
..कि 
आखिरी आहुति सी
खुल गई
अभिव्यक्ति एकदम से !

तुम्हारी कविता
बना गई मुझे द्रष्टा
एक ऋचा की।

शनिवार, 23 जनवरी 2010

पुरानी डायरी से -12 : श्रद्धा के लिए

13 दिसम्बर 1993, समय:__________                                 श्रद्धा के लिए


तुम्हारा बदन 
स्फटिक के अक्षरों में लिखी ऋचा  
प्रात की किरणों से आप्लावित
तुम्हारा बदन।


दु:ख यही है 
मेरे दृष्टिपथ में 
अभी तक तुम नहीं आई।
कहीं  ऐसा तो नहीं 
कि तुम हो ही नहीं !
नहीं . . . . 

पर मेरी कल्पना तो है - 
"तुम्हारा बदन 
स्फटिक के अक्षरों में लिखी ऋचा
प्रात की किरणों से आप्लावित
तुम्हारा बदन।"


शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

री !

सुरसरि तट
सर सर लहर सुघर सुन्दर लहर कल कल टल मल सँवर चल कलरव रव री !
______________________________________
हिन्दी कविता के प्रयोगवादी दौर में एक वर्ग ऐसा भी रहा जो छ्पे हुए शब्दों को भी एक तार्किक समूह में कागज पर रख देने का हिमायती था ताकि कविता की लय (अर्थ और विचार दोनों) छपाई तक में दिखे। उतना तो नहीं लेकिन सुधी जन की टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए यति की दृष्टि से पंक्तियों में तोड़ दें तो कविता यूँ दिखेगी:
_____________________________________
सुरसरि तट

सर सर लहर सुघर सुन्दर
लहर कल कल टल मल
सँवर चल
कलरव
रव री !



सोमवार, 18 जनवरी 2010

देह गन्ध ... सिद्धि हुई जीवन की।

स्मरण दिवस प्रिये, निमंत्रण देह गन्ध
पहली बेला महकी।


वलय वृत्त गणित, सौन्दर्य सृष्टि अपार 
केवल सन्तति हेतु ?

तुमने रचा संसार, मधु राग राग स्वर 
आभा नृत्य अभिसार ।

अधर मार्दव चूम, दाड़िम दंत पखार 
स्पर्श सुख सहसा सा।

रोम रोम रस धार, छाया विद्युत प्रवाह 
कसा बसा आलिंगन।

टूटे बन्ध देह मुक्त, तड़प उठी बिजली 
लयकारी सिसकी की।

साँसे ऊष्ण संघर्षण, दो एकाकी हुए एक 
आहुति अर्घ्य संगति।

प्लवित मन सकार, नेह झील पूरन सी 
सिद्धि हुई जीवन की।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

संक्रांति संग जाएगा बचपना

घर में आइस पाइस*
ठिठुरन संग।
छुपा हूँ रजाई में।

ठिठुरन देखती
पकड़ नहीं पा रहीIMG213-01
कह नहीं पा रही
- वो: देखो !

रोज होता ऐसा 
पर आज ठिठुरन
आई संक्रांति सहेली संग।
संक्रांति बेशरम
खींचती है रजाई

नहाने को कहती है।
संक्रांति आई है
बस एक दिन के लिए
ठिठुरन सहेली संग जाएगी
अनजान देश।

मैं भी खुश
चलो ठिठुरन संग
जाएगा बचपना भी
रजाई में दुबक छिपना।

कितना अजीब !
सहेली के जाने पर भी
यूँ खुश होना।

आज मित्र बसंत की पाती आई है।
आने का वादा किया है।
_________________
* आइस पाइस - लुका छिपी का खेल।

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

युगनद्ध - 2

युगनद्ध - 1



सज गई
फिर 
उड़ी आवर्तों में 
सिहरी, लहकी
खुली बहकी
लहर लहर
नाच उठी।

सहलाया
दुलराया
सीने से लगा
बहकाया
दे सहारा घुमाया
आनन्द आवर्तों में।


गूँज उठी किलकारी 
बच्चों की।
युगनद्ध जो हुए थे
पतंग और पवन।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

युगनद्ध - 1

सोचती रही
कपोल पर ढुलक आए आँसू 
वापस आँखों में ले ले।


सोचता रहा
निकल आई आह सिसकी 
शरीर में वापस ले ले।


मिलन और बिछुड़न -
युगनद्ध । 

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

बहस 'देहात -साँझ,रात,भिनसार' और 'हाय क्यूँ' के बहाने

नीचे की रचनाएँ देखें। बायें स्तम्भ वाली पुरानी हैं, दायें स्तम्भ वाली कल रची गईं।
संक्षिप्त अभिव्यक्ति के गूढ़ार्थ और कविता पर शिल्प के बोझ पर बहस अपेक्षित है।

देहात - साँझ, रात, भिनसार


साँझ 
नहीं ठाँव 
तारों के पाँव। 


पीपल 
पल पल 
जुगनू द्ल। 


पावर 
रोशनी कट 
ढेबरी सरपट। 


चाँद 
फेंक प्रकाश 
लानटेन भँड़ास। 


मच्छर 
गुमधुम 
लोग सुमसुम। 


श्वान 
संभोग दल 
रव बल छल। 


फूल 
पौधों के शूल 
रजनी दुकूल। 



ओस 
रही कोस 
बारिश भरोस।


सेंक 
रोटी फेंक 
चूल्हा टेक।


बयार 
हरसिंगार 
धरती छतनार।

'हाय क्यूँ'


तौलिया सूखा 
आज कोई न रोया 
बाथरूम में।


सड़क टूटी 
साहब को दी कार 
ठीकेदार ने।


पार्टी खलाश 
जमादार न आया 
निर्धन मौज।


गड़े हैं पोल 
बिजली है लापता 
कुत्तों की मूत।


टँगी हैं टाँगें 
ढाबे में संसद में 
यही है दिल्ली।


अब हाय क्यूँ 
पड़ोसी निहाल है 
इसीलिए तो ।


कवि परेशाँ 
बहर में कसर 
भाव गड्ढे में।

बुधवार, 6 जनवरी 2010

आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर


ढूढ़ा किए दौरे जहाँ कि तिलस्म का राज खुले
देख लेते तुम्हारे अक्षर तो यूँ क्यूँ भटकते?
न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।

चुप हैं खामोशी से भी नीचे तक
कैसा खामोश मंजर कि सब कहने लगे हैं
थके पाँवों के नीचे सरकते ग़लीचे
थमने की बातें करने लगे हैं।

तुम न कहते तो जाने क्या बात होती
जो कह गए हो तो जाने क्या बात होगी
जो कहना था न तुम कह पाए न हम कह पाए
अब इशारों इशारों में क्या बात होगी ।
चलो आज छोड़ें इशारे
कह दें जो कहनी थी पर कह न पाए -
देखो सड़क किनारे वो बूढ़ा सा पीपल
उसके पत्ते हवा में खड़कने लगे हैं
 बैठें कुछ देर छाए में किनारे
न कहना कि ऐसे में क्या बात होगी।

समझो न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर
बैठें पीपल तले, शफेखाने, मयखाने या मन्दर
कोई सूरमा ऋषि हो या अजनबी सिकन्दर
 हो जाती है बात जो होनी है होती
ग़र दिल के कोने कहीं लगावट है होती।

माना कि तुम हो परेशाँ और मैं भी हैराँ
जिनके जिन्दा निशाँ हैं जुबाँ पर हमारे
दिल ताने हुए है सख्त सी धड़कन
फिर कैसी ये तड़पन जो न तुम भूल पाते
न हम भूल पाते !
एक बात जो है तुमको बतानी
एक उलझी जुबानी
कि थी ही नहीं इतनी काबिल परेशानी
जो न हम मोल पाते न तुम तोल पाते
जो न हम तोल पाते न तुम मोल पाते।

चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
देखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
एक गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
चल देंगे धीमे से हँसते ।
मानो कि वो बहुत बात होगी
न होंगे गलीचे न होंगे वो मंजर -
मैंने कहा था कि नहीं ?
न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर।

रविवार, 3 जनवरी 2010

गए बिहाने सजन

लगन की बात न करो रे सजन
लगे है पवन में अगन रे सजन।

कुमकुम उतरी अधर में सजन
संझा की लाली है देखे सजन।

नेवत रही अँखियाँ निहारें सजन
जवानी भी करती है कैसे भजन।

मैं तो हूँ चुप खन चूड़ी खनन
मइया बुलाएँ,क्या बहाने सजन!

सिमट गए बोल आखर अखर
खुल गई बातें, सँभाले सजन।

चुम्बन की बरखा अन्हारे सजन
कागज बिना जो पढ़ाए सजन।

पीर सिमटी कहाँ जो बताएँ सजन
आँसु राँधा बिजन,गए बिहाने सजन।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

पद्य के आँगन गद्य अतिथि कह रहा," दो दुनी चार"

सुबह सुबह नींद खुलते ही भनभनाता हूँ - कमबख्त कितनी ठंड है ! श्रीमती जी हैप्पी न्यू इयर बोलती हैं तो याद आता है - वो: ! ऐसा क्या हैप्पी है इसमें? हर साल तो आता है और इतनी ही ठंड रहती है। हर साल लगता है ठंड बढ़ती जा रही है। शायद हम बूढ़े होते जा रहे हैं।


सोच को अभी समझ सकूँ कि बोल फूट ही पड़ते हैं - बड़ी खराब आदत है। बड़े बूढ़ों ने कहा सोच समझ के बोला करो। लेकिन हम तो हम, बहुत धीमे सुधरने वाले! अब तो सोचते ही लिखने भी लगे हैं – जिन्हें जो समझना हो समझता रहे।
शायद अभी बूढ़े नहीं हुए - उठी तसल्ली अभी बैठी भी नहीं कि मन के किसी कोने से आवाज आती है - अभी मैच्योर नहीं हुए! धुत्त !!


..श्रीमती जी मेरी बात पर मीठी झाड़ पिला रही हैं। सोचता हूँ बात तो सही है। उत्सव तो होना ही चाहिए। माना कि ठंड बढ़ती चली जा रही है लेकिन इस बार तो रजाई से दहाई निकली है - 2010। पिछली दफा सौ साल पहले निकली थी लेकिन तब न हम थे, न ये शमाँ और न ये सारे लोग लुगाई। अगली बार दहाई निकलेगी सौ साल के बाद और हमें सुपुर्द-ए-खाक हुए जमाना बीत चुका होगा। मुई को सेलिब्रेट तो करना ही चाहिए। हुँह , मन बहाने ढूढ़ ही लेता है!


गया साल 9 का था, दशमलव प्रणाली की इकाई में सबसे बड़ा अंक।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट पढ़ते सोचता हूँ - आप सबको गुड लक बोलूँ। रिपोर्ट कहती है कि भारत की स्थिति इतनी अच्छी है कि अगर अगले दस वर्षों तक कोई आर्थिक सुधार न हो तो भी भारतीय अर्थव्यवस्था 9.6% वार्षिक दर से वृद्धि करेगी ! ( The Indian Express – Indicus Analytics study)।


अगली ही पंक्ति पढ़ कर उदास हो जाता हूँ इतनी वृद्धि होने पर भी 25 करोड़ लोग ‘अति निर्धन’ की श्रेणी में रहेंगे, 10 करोड़ लोग भी ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट नहीं हो पाएँगे और कृषि का अर्थ व्यवस्था में योगदान 10% तक सिकुड़ जाएगा जब कि इसके उपर पेट की आग बुझाने का जिम्मा बहुत बढ़ जाएगा। उत्तर प्रदेश का जीवन स्तर 2005 के पाकिस्तान से भी बदतर होगा .... गुड लक या बैड लक का निर्णय आप के उपर छोड़ता हूँ। जरा सोचिए।


वित्तीय वर्ष वाला नया साल अप्रैल से चालू होता है। ये दो नए सालों में तीन महीने का अंतर क्यों होता है? बाकी जिन्दगी में नए साल का उत्सव जनवरी में तो अर्थव्यवस्था में अप्रैल में!
मेरा मन मुझे डाँटता है, हो गया होगा कभी निभाए जा रहे हैं। मैं कहता हूँ, नहीं! इसमें प्रयोजन है। अपने परिवार और अपनी जिन्दगी को पहले रखो, काम तो बस एक हिस्सा भर है। देखो कितनी अच्छी व्यवस्था है ! वित्तीय वर्ष के उत्सव की तैयारी के लिए पूरे तीन महीने मिलते हैं। तसल्ली से, कायदे से काम करो न ! सरकारी/प्राइवेट कर्मचारी मित्रों! आप लोग सुन रहे हैं?


मेरा मन फिर कहता है लेकिन कोई घूम घूम कर पहली अप्रैल को 'हैप्पी न्यू इयर' क्यों नहीं कहता ?
अरे किस लिए कहे क्या जरूरी है कि कार्यक्षेत्र का उत्सव आम जिन्दगी सा ही हो? देखो, सारा लेखा जोखा कितनी लगन, कितनी तत्परता से हम सहेजते हैं, सँवारते हैं, कितना टेंसन ले कर करते हैं! उत्सव ही तो होता है।


अभी मुझे एक बात ध्यान में आई जब आज तो केवल 0 और 1 हैं - बाइनरी डिजिट्स-010110। मन के किसी कोने आवाज आई अरे 20 को कहाँ छोड़ दिए?
अबे चुप्प! 2k की दहशत गए जमाना हो गया। फिर जब आएगी तो 90 साल बाद, शायद 990 वर्षों के बाद। जो होगा वो झेलेगा अभी तो बस 10 की बात करो।
बाइनरी का 010110 दशमलव पद्धति में 22 होता है। हम दो हमारे दो (भाई आदर्श वाक्य है, इतर तो बस दो को ही मना लें, इकलौतों के लिए 1 है ही!)
तो यह साल दो दुनी चार करने का है मतलब दिन दूना रात चौगुनी तरक्की। चलिए लग जाते हैं।
...अरे ! मैं तो हैपी न्यू इयर कहना भूल ही गया!
HAPPY NEW YEAR. नववर्ष मंगलमय हो।