ढूढ़ा किए दौरे जहाँ कि तिलस्म का राज खुले
देख लेते तुम्हारे अक्षर तो यूँ क्यूँ भटकते?
न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।
चुप हैं खामोशी से भी नीचे तक
कैसा खामोश मंजर कि सब कहने लगे हैं
थके पाँवों के नीचे सरकते ग़लीचे
थमने की बातें करने लगे हैं।
तुम न कहते तो जाने क्या बात होती
जो कह गए हो तो जाने क्या बात होगी
जो कहना था न तुम कह पाए न हम कह पाए
अब इशारों इशारों में क्या बात होगी ।
चलो आज छोड़ें इशारे
कह दें जो कहनी थी पर कह न पाए -
देखो सड़क किनारे वो बूढ़ा सा पीपल
उसके पत्ते हवा में खड़कने लगे हैं
बैठें कुछ देर छाए में किनारे
न कहना कि ऐसे में क्या बात होगी।
समझो न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर
बैठें पीपल तले, शफेखाने, मयखाने या मन्दर
कोई सूरमा ऋषि हो या अजनबी सिकन्दर
हो जाती है बात जो होनी है होती
ग़र दिल के कोने कहीं लगावट है होती।
माना कि तुम हो परेशाँ और मैं भी हैराँ
जिनके जिन्दा निशाँ हैं जुबाँ पर हमारे
दिल ताने हुए है सख्त सी धड़कन
फिर कैसी ये तड़पन जो न तुम भूल पाते
न हम भूल पाते !
एक बात जो है तुमको बतानी
एक उलझी जुबानी
कि थी ही नहीं इतनी काबिल परेशानी
जो न हम मोल पाते न तुम तोल पाते
जो न हम तोल पाते न तुम मोल पाते।
चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
देखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
एक गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
चल देंगे धीमे से हँसते ।
मानो कि वो बहुत बात होगी
न होंगे गलीचे न होंगे वो मंजर -
मैंने कहा था कि नहीं ?
न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर।
अब बतावल जावे कि निराकार ब्रह्म से गोठिया रहे हैं कि कोई साकार है ..???
जवाब देंहटाएं:):)
हाँ ..मकई की बात में एक ठो गीत याद आया है ...
मकईया रे तोहर गुना गवलो न जाला
भात लागे लेदेरे फेदर, रोटी सक्कर पाला
बहुत सुन्दर कविता....आप ऐसा भी लिखते हैं...??
ना भटकते तो कैसे मिलती ये शोख नजर ....
जवाब देंहटाएंभटकने का अच्छा बहाना ढूँढा ..
थके पांवो के नीचे सरकते गालीचे
कहीं जिंदगी ही तो नहीं ....
पीपल के तले भुट्टे की भुनाई और फिर साथ खाना
अच्छा खासा रोमांटिक ख़याल है
अब ऐसे में तोल मोल की बाते .....जाने दीजिये ...!!
धन्य भये महाराज...बड़ा गहन उतरे....
जवाब देंहटाएंमगर
चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
देखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
ई भुट्टे के बाद एक लोटा पानी..बड़ा जोर जुकमिया जायेंगे..हमें तो बचपन से मना किया गया कि भुट्टे के बाद पानी नहीं.. :)
"देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।"
जवाब देंहटाएंमैं पहिले समझ गया था की कवितवा इहीं ठावं खत्म होई -
और कुंवर बेचैन का एक थो गीत याद हो आया -
एक ही ठांव पे ठहरोगे तो थक जाओगे
धीरे धीरे ही सही राह पे चलते रहिये ...
होके मायूस न यूं ही शाम से ढलते रहिये .....
चल भाई आगे चल .....
ढूढ़ा किए दौरे जहाँ कि तिलस्म का राज खुले
जवाब देंहटाएंदेख लेते तुम्हारे अक्षर तो यूँ क्यूँ भटकते?
न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।
"आखराँ" का अर्थ तो बता दो भाई! कविता कई बार पढ़ चुका हूँ. हर बार यहीं अटक जाता हूँ. टिप्पणी करने से पहले ठीक से समझना चाहता हूँ.
चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
जवाब देंहटाएंदेखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
बहुत सुन्दर अब तो भुट्टों का सीजन भी गया। आपने भुट्टों की तलब जगा दी । सुन्दर रचना बधाई
बहुत सुन्दर रचना है।
जवाब देंहटाएंमानो कि वो बहुत बात होगी
न होंगे गलीचे न होंगे वो मंजर -
मैंने कहा था कि नहीं ?
न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर।
बहुत गहराई है कविता में..... बहुत अच्छी लगी....
जवाब देंहटाएं@ अनुराग भैया
जवाब देंहटाएंअक्षर -> आखर -> आखराँ - अक्षरों में, कथन में, बातों में
आभार!
हटाएं"हो जाती है बात जो होनी है होती
जवाब देंहटाएंग़र दिल के कोने कहीं लगावट है होती।
"तुम न कहते तो जाने क्या बात होती
जो कह गए हो तो जाने क्या बात होगी
जो कहना था न तुम कह पाए न हम कह पाए
अब इशारों इशारों में क्या बात होगी ।"
अच्छी लगी ये पंक्तिया !
"चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
जवाब देंहटाएंदेखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
एक गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
चल देंगे धीमे से हँसते ।"
शुरु करके कैसे अंत में यह कैसी कविता बनाई !
@गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
चल देंगे धीमे से हँसते ।" --एकदम से सिसकाय दिये भइया !
पता नहीं हम उस संवेदना तक पहुँचे कि नहीं पर...
"फिर उसी राहगुजर पर शायद
मिल सकें हम कभीं मगर, शायद !"
ये आपके "धीमे से हँसते" और इस "शायद" की टोन एक ही तो नहीं !
पता नहीं ।
एक गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
जवाब देंहटाएंचल देंगे धीमे से हँसते ।
...मन डूब गया इन पंक्तियों में। मासूम भावनाओं की इतनी सहज अभिव्यक्ति कम ही पढ़ने को मिलती है।
...बहुत खूब। वाह!