बुधवार, 24 मार्च 2010

आँख धसा व्याध तीर बजता रहा जो संगीत

vyaadhaMILKYWAY3 न प्रीत न गीत राह किनारे रीत बैठ न पाया बजता रहा जो संगीत मनमीत तुमसे बिछुड़न का कैसी यह धुन जो साथ गाई अब भी बजती शहनाई मैं संगत करता शबनम सा आकाश छोड़  हवा संग धरती पर सूख चले रवि संग पुन: नभ तक रहना गिरना उठना चलना राह किनारे रीत बैठ न पाया बजता रहा जो संगीत मनमीत तुमसे बिछुड़न का अवसाद ढले शाम चले दीप जलें टुकुर टुकुर नेह नीर बन जाँय जुगनू पलक झपकें धूल धूसरित बूँदे गिर बुझ टपक पड़े रात मन काट काट सहस मसक बजता रहा संगीत तुमसे बिछुड़न का आसमान भटक रहे कितने ही रोगी सब ठहर गए ठाँव ठाँव जो आँख धसा व्याध तीर नभ सरि नींद चीखती गई भाग पूरब संग रँग गई लाल चुरा ललाई नयनों से सो न सका बजता रहा जो संगीत मनमीत तुमसे बिछुड़न का।
Sands0861

मंगलवार, 23 मार्च 2010

(१)तुम्हारी हत्या पर भी रख लेंगे २ मिनट का मौन,(२)भारतीय की जान की कीमत(३)बातचीत रहेगी जारी

आज प्रात: एक मेल मिला। ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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तुम्हारी हत्या पर भी रख लेंगे २ मिनट का मौन (अभागे भारतीय की फरियाद पर सिक-यू-लायर(Sick you Liar, बीमार मानसिकता वाले  झुट्ठे) नेता द्वारा सांत्वना भरे कुटिल उपदेश की तरह पढ़ें)-----------------------------------------------------
अच्छा!!!   वो दुश्मन है? बम फोड़ता है? गोली मारता है?
मगर सुन - दोस्ती में - इतना तो सहना ही पड़ता है
तय है - जरुर खोलेंगे एक और खिड़की - उसकी ख़ातिर
मगर - हम नाराज़ हैं - तेरे लिए इतना तो कहना ही पड़ता है

तुम भी तो बड़े जिद्दी हो -  दुश्मन भी बेचारा क्या करे
इतने बम फोड़े - शर्म करो - तुम लोग सिर्फ दो सौ ही मरे ? (कितने बेशर्म हो तुम लोग)
चलो ठीक है - इतने कम से भी - उसका हौंसला तो बढ़ता है
और फिर - तुम भी तो आखिर १०० करोड़ हो(*) - क्या फर्क पड़ता है?
[(*) ११५ करोड़ में १५ करोड़ तो विदेशी घुसपैठिये हमने ही तो अन्दर घुसाएँ हैं वोटों के लिए]

अच्छा!   समझौते की गाड़ियों में दुश्मन भी आ जाते हैं???
क्या हुआ जो दिल लग गया यहाँ - और यहीं बस जाते हैं
बेचारे - ये तो वहां का गुस्सा है - जो यहाँ पर उतारते हैं
वहां पैदा होने के पश्चाताप में - यहाँ पर तुम्हें मारते हैं (क्यों न मारें?)

क्या सोचता है तू ? मरना था जिनको - वो तो गए मर
तू तो जिन्दा है ना - तो चल - अब मरने तक हमारे लिए काम कर
और क्या औकात थी उन मरने वालों की ?  सिर्फ २०० रुपये मासिक कर  (*१)
हम क्या शोक करें - क्यों शोक करें अब - ऐसे वैसों की मौत पर ?

अच्छा!  आतंकवादी तुम्हें लूटता है? मारता है? मजहब के नाम पर ?
पर आतंकवादी का तो कोई मजहब ही नहीं होता - कुछ तो समझा कर (बेवकूफ कहीं के)
तू सहिष्णु है - भारत सहिष्णु है - यह भूल मत - निरंतर याद कर
क्या कहा? आत्मरक्षार्थ प्रतिरोध का अधिकार? - बंद यह बकवास कर (अबे,वोट बैंक लुटवायेगा क्या)

इन बेकार की बातों में - न अपना कीमती वक्त बरबाद कर
भूल जा - कुछ नहीं हुआ - जा काम पर जा - काम कर

तेरे गुस्से की तलवार को - हमारी शांति की म्यान में रख
हमने दे दिया है ना कड़ा बयान - ध्यान में रख
जानते हैं हम - इस बयान पर - वो ना देगा कान
चिंता ना कर - तैयार है - एक इस से भी कड़ा बयान

दे रक्खा है उसे - सबसे प्यारे देश का दरजा  (*२)
चुकाना तो पड़ेगा ना - इस प्यार का करजा
दुनिया भर से - कर दी है शिकायत - कि वो मारता है
दुनिया को फुरसत मिले - तब तक तू यूँ ही मर जा

किस को पड़ी है कि - कौन मरा - और मार गया कौन
आराम से मर - तेरे लिए भी रख लेंगे - २ मिनट का मौन

*1 : Profession Tax Rs.200/-per month
*2 : Most Favoured Nation

रचयिता : धर्मेश शर्मा
संशोधन, संपादन : आनंद जी. शर्मा------------------------------
भारतीय की जान की कीमत 
(बाल-बुद्धि भारतियों पर कवि का कटाक्ष)

अरे 
- समझौता गाड़ी की मौतों पर - क्या आंसू बहाना था 
उनको तो - पाकिस्तान नाम के जहन्नुम में ही - जाना था
 
मरने ही जा रहे थे - लाहौर, करांची - या पेशावर में मरते
और उनके मरने पर - ये नेता - हमारा पैसा तो ना खर्च करते

और तुम - भारतियों, टट्पुंजियों - कहते हो हैं हम हिंदुस्थानी 

जब हिसाब किया - तो निकला तुम्हारा ख़ून - बिलकुल पानी
औकात की ना बात करो - दुनिया में तुम्हारी औकात है क्या - खाक
वो समझौता में मरे तो १० लाख - तुम मुंबई में मरो तो सिर्फ ५ लाख

तुम से तो वो अनपढ़, जाहिल, इंसानियत के दुश्मन,  ही अच्छे 

देखो कैसे बन बैठे हैं - बिके हुए सिक यू लायर मीडिया  के प्यारे बच्चे
उनके वहां मिलिटरी है - इसलिए - यहाँ आ के वोट दे जाते हैं
डेमोक्रेसी के झूठे खेल में - तुम पर ऐसे भारी पड़ जाते हैं

जाग जा - अब तो जाग जा ऐ भारत - अब ऐसे क्यूँ सोता है 

वो मार दें - और तू मर जाये - लगता ऐसा ये "समझौता" है
प्रियजनों की मौत पर - फूट फूट रोवोगे - वोट नहीं क्या अब भी दोगे
लानत है -  ख़ून ना खौले जिस समाज का - वो सज़ा सदा ऐसी ही भोगे

पांच साल में - आधा घंटा तो - वोट के लिए निकाला कर 

विदेशियों के वोटों से जीतने वालों का तो मुंह काला कर
सब चोर लगें - तो उसमे से - तू अपने चोर का साथ दे दे
अपना तो अपना ही होता है - परायों को तू मात दे दे

बुद्धिमान है तू - अब अपनी बुद्धि से काम लिया कर 

वोट दे कर अपनों को - वन्दे मातरम का उद्घोष कर
आक्रमणकारियों के दलालों का राज - समूल समाप्त कर
ऐ भारत - तू उठ खड़ा हो - निद्रा, तन्द्रा को त्याग कर
 
अपने भारतीय होने पर - दृढ़ता से अभिमान कर
कुछ तो कर - कुछ तो कर - अरे अब तो कुछ कर

रचयिता : धर्मेश शर्मा
संशोधन, संपादन : आनंद जी. शर्मा
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बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी 

चाहे हम हों कितने तगड़े , मुंह वो हमारा धूल में रगड़े,
पटक पटक के हमको मारे , फाड़ दिए हैं कपड़े सारे ,
माना की वो नीच बहुत है , माना वो है अत्याचारी ,
लेकिन - बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी .

जब भी उसके मन में आये , जबरन वो घर में घुस जाए ,
बहू बेटियों की इज्ज़त लूटे, बच्चों को भी मार के जाए ,
कोई न मौका उसने छोड़ा , चांस मिला तब लाज उतारी ,
लेकिन - बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी .

हम में से ही हैं  कुछ पापी , जिनका लगता है वो बाप ,
आग लगाते  हुए वे जल मरें , तो भी उसपर हमें ही पश्चाताप ?
दुश्मन का बुरा सोचा कैसे ???  हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी ???
अब तो - बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी .

बम यहाँ पे फोड़ा , वहां पे फोड़ा , किसी जगह को नहीं है छोड़ा ,
मरे हजारों, अनाथ लाखों में , लेकिन गौरमेंट को लगता थोडा ,
मर मरा गए तो फर्क पड़ा क्या ? आखिर है ही क्या औकात तुम्हारी ???
इसलिए - बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी .     

लानत है ऐसे सालों पर , जूते खाते रहते हैं दोनों गालों पर ,
कुछ देर बाद , कुछ देर बाद , रहे टालते बासठ सालों भर ,
गौरमेंट  करती रहती है  नाटक , जग में कोई नहीं हिमायत ,
पर कौन सुने ऐसे हाथी की , जो कोकरोच की करे शिकायत ???
इलाज पता बच्चे बच्चे  को , पर बहुत बड़ी मजबूरी है सरकारी ,
इसीलिये  - बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी .     

वैसे हैं बहुत होशियार हम , कर भी रक्खी सेना  तैयार है ,
सेना गयी मोर्चे पर तो  - इन भ्रष्ट नेताओं का कौन चौकीदार है ???
बंदूकों की बना के सब्जी , बमों का डालना अचार है ,
मातम तो पब्लिक के  घर है , पर गौरमेंट का डेली त्योंहार है 
ऐसे में वो युद्ध छेड़ कर , क्यों उजाड़े खुद की दुकानदारी ???
इसीलिये - बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी . 

सपूत हिंद के बहुत जियाले , जो घूरे उसकी आँख निकालें ,
राम कृष्ण के हम वंशज हैं , जिससे चाहें पानी भरवालें ,
जब तक धर्म के साथ रहे हम , राज किया विश्व पर हमने ,
कुछ पापी की बातों में आ कर , भूले स्वधर्म तो सब से हारे ,
जाग गए अब, हुए सावधान हम , ना चलने देंगे  इनकी मक्कारी ,
पर तब तक -  बात चीत रहेगी जारी , बात चीत रहेगी जारी .     

रचयिता : धर्मेश शर्मा
मुंबई / दिनांक २०.०९.२००९ 
संशोधन, संपादन : आनंद जी. शर्मा
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-------------------रचनाकार अथवा संपादक नियमित लेखक, कवि अथवा ब्लागर नहीं हैं l  एक आम आदमी की तरह, आम आदमियों के बीच घूमते हुए, आतंकवादी हमलों के बाद अपने प्रियजनों को खो कर ह्रदय विदारक क्रंदन करते हुए, लुटे हुए  आम भारतीय की जो पीड़ा, विवशता, हताशा और छटपटाहट देखी है - वह महसूस तो की जा सकती - परन्तु शब्द - वाणी अथवा लेखनी द्वारा - उस दर्द का १/४ % या १/२ %  भी आप तक संप्रेषित करने में असमर्थ हैं l  कहा गया है की "एक चित्र १००० शब्दों से अधिक कहता है" - परन्तु एक अनुभूति को तो सम्पूर्ण शब्दकोष भी संप्रेषित करने में असमर्थ हैं l हर बार के आतंकी आक्रमण के बाद जिस तरह बिके हुए निर्लज्ज देशद्रोही पत्रकार और नेता मिल कर भारत की आक्रांत और पीड़ित जनता को बहलाने फुसलाने का काम करते हैं और कहते हैं कि कुछ नहीं हुआ देखो कैसे भारत की जनता आक्रमण को भुला कर दूसरे ही दिन अपने अपने काम में व्यस्त हो गई है l  खून तो तब खौलता है जब ये बिके हुए निर्लज्ज देशद्रोही पत्रकार और नेता लोग आक्रमणकारियों की  पैरवी करने लगते है  और देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले वीर सैनिकों पर आरोप लगाने का जघन्य और अक्षम्य अपराध करते हैं l

एक आम 
भारतीय की पीड़ा अपनी संवेदना में मिला कर आप तक पँहुचाने का प्रयास है l जब तक हम सब लोग आपसी क्षुद्र भेदभाव भुला कर अपनी मातृभूमि भारत की रक्षा के प्रति एकमत नहीं होंगे तब तक ऐसे ही आक्रमण होते रहेंगे और हम लोग ऐसे ही अरण्य-रोदन करते रहेंगे l
मातृभूमि भारत के प्रति देशभक्ति की भावना या रचना पर एकाधिकार अथवा नियंत्रण अवांछित है l प्रत्येक देशभक्त भारतीय अपनी अपनी भाषा में अनुवाद कर के प्रसारित करे l यद्दपि किसी भी प्रकार का "Copy Right" नहीं है - सब कुछ "Copy Left" है;  तदापि पाठकगण से नम्र निवेदन है कि अपने मित्रों को प्रसारित (फारवर्ड) करते समय अथवा अपने ब्लॉग पर डालते समय रचनाकार को एक ईमेल द्वारा सूचित कर के अथवा एक लिंक दे कर  प्रोत्साहन दें l हमारा मानना है कि - Criticism is Catalyst to Creativity या फिर यूँ समझ लीजिये कि - निंदक नियरे रखिये आंगन कुटी छवाय...... l  आपकी  सृजनात्मक आलोचना शिरोधार्य होगी - संकोच न करें l
देशभक्तिपूर्ण कविता आपको पसंद आयी तो अवश्य प्रसारित करें अथवा - क्योंकि :
भारत के लोगों में देशभक्ति अक्षरशः "मरघटिया वैराग्य" जैसी है l ज्यों ही भारत पर आक्रमण होता है - जैसा की पिछले २००० वर्षों से होता आ रहा है (कोई नई बात नहीं है - आक्रमण न होना नई बात होगी), लोगों  की देशभक्ति उनींदी सी आँखों से जागती हुई प्रतीत होती है - केवल प्रतीत होती है - जागती नहीं है - बस मिचमिचाई हुई आँखों से देख - थोड़ा बड़बड़ा कर फिर सो जाती है - अगले आक्रमण होने तक l  मैं तो कहता हूँ कि  "मरघटिया वैराग्य" भी बहुत लम्बा समय है - यूँ कहना चाहिए कि सोडा वाटर की बोतल खोलने पर बुलबुलों के जोश जितना या फिर मकई के दाने के गर्म होने पर आवाज कर के फटना और पोपकोर्न बनने की अवधि तक- बस इतना ही - इस से अधिक नहीं l   पता नहीं कितने महान लोग भारत को जगाने का असफल प्रयत्न कर कर के मर गए परन्तु पूरे विश्व में केवल भारत के ही लोग हैं जो ठान रक्खें हैं कि हम नहीं जागेंगे l  जो जाग जाते हैं उनके साथ ये तकलीफ़ है कि वे दूसरों को जगाने का मूर्खतापूर्ण कार्य करने लगते हैं - भूल जाते हैं कि उनके पहले भी उनसे लाख गुणा महान आत्माएं सिर पटक के थक गए - परन्तु भारत के लोग नहीं जगे l  हम आप जैसे कुछ "मूर्ख" लोग भी भारत को जगाने के प्रयास में सहयोग कर रहें है - संभवतः किसी दिन भारत की अंतरात्मा जाग जाये l  चर्मचक्षु  खुलने से जागना नहीं होता है - ज्ञानचक्षु खुलने की नितांत आवश्यकता है - Sooner the Better.
जिस प्रकार हम प्रतिदिन शौचकर्म करते हैं, स्नानादि करते हैं, भोजन करते हैं - यह नहीं कहते कि कल तो किया था फिर आज भी क्यों करें - ठीक उसी प्रकार भारत के लोगों की मूर्छित अंतरात्मा को जगाने के लिए प्रत्येक जागरूक देशभक्त भारतीय को प्रतिदिन प्रयत्न करना है l मैं "चाहिए" शब्द के प्रयोग से बचता हूँ l  हमें प्रयत्न करना "चाहिए" नहीं -  हमें प्रयत्न करना है - और करते रहना है l


आनंद जी. शर्मा 
मुंबई / दिनांक : १६.०३.२०१०

ई मेल : anandgsharma@gmail.com

रविवार, 21 मार्च 2010

डरो नहीं

डरो नहीं - प्रेम जीवित रहेगा।
मृत्यु के बाद भी।
बिछड़ने के बाद भी।
तारे के उल्का हो जाने के बाद भी।
चाँद तारों के पार प्रेम जीवित रहेगा -

मैं मैं न रहूँगा
वह वह न रहेगी।
..बहुत दिनों बाद जब याद करेंगे
प्रेम फैलेगा मुलायम चाँदनी बन
याद को आकार देते हुए -

अँधेरे में आकार कहाँ होते हैं?
अँधेरे में डर लगता है । 
चाँदनी ! 

शनिवार, 20 मार्च 2010

पुरानी डायरी से - 18: अधूरी कविता

रजनी का पक्ष कृष्ण
बेला है भोर की ।
चंचल मन्द अनिल नहीं ऊष्ण
कमी है शोर की।


अपूर्ण चाँद ऐसा लगता
अन्धकार को दूर करने हेतु
जैसे जला दिया हो प्रकृति ने
एक शांत दिया।


श्वेत बादल ऐसे चलते
इस दीप के उपर से
जैसे हों इस दीप से निकले
पटलित धूम।


इक्के दुक्के तारे निकलते
इनके बीच से
जैसे खेल रहे हों बच्चे
आँखमिचौनी गरीब के।

देह पीरे पी रे।

देह पीरे पीर रे
नाच रही पीरे पी रे 
चन्दन पलंग रात न सोहे
नेह बिछौना अंग न तोरे
निदियाँ नाहीं पीर रे।
नाच रही मैं पीर रे।

सास की बरजन ससुरा गरजन
बाज रहे पायल में झम झम
माती अँखियन नीर रे
रटती पी रे तू पी रे 
चकित चौबारे पीर रे
मैं नाच रही पीर रे
देह पीरे पी रे।  

अब आओ जू राह तकूँ मैं
सुनती तोरे बैलन की घाँटी
आज सजी सिंगारन खाँटी
अँगना चौखट लाँघ सकूँ मैं
कब उजरूँ तोरे हाथ के तारन
नाच रही पीरे पी रे।
नेह पगी पीर रे।
देह पीरे पी रे।

बुधवार, 17 मार्च 2010

सापेक्ष दौर

मेरे कुकर्मों की निन्दा न करो
मेरे कुकर्म निम्नतर हैं
मेरे कुकर्म तुम्हें स्वीकार्य होने चाहिए:
उसने बलात्कार किया - तुम चुप रहे
उसने घोटाला किया - तुम चुप रहे
उसने देश को समझौते के नीचे दफन कर दिया - तुम चुप रहे
आज मेरे निम्नतर कुकर्म पर
तुम इतने प्रगल्भ क्यों हो?
तुम पक्षपाती हो
तुम उसके साथी हो
तुम्हारे मन में चोर है -
तुम्हें याद दिलाता हूँ
तुम्हारी कसौटी ।
तुम्हें दुनिया में हो रहे
हर कुकर्म , हर अत्याचार, हर घपले
से गुजरना होगा
उन पर लिखना होगा -
इसके बाद ही तुम लिख सकते हो मेरे स्याह कर्म
कराह सकते हो
मेरे कुकर्मों की तपिश से झुलसते हुए -
बेहतर है चुप रहो जैसे पहले रहे थे
तुम्हारा मौन  तुम्हारा कवच है
गारंटी है
कि
तुम निरपेक्ष हो इस सापेक्ष दौर में -
बोलने पर तुम्हें सफाई देनी होगी :
उसने बलात्कार किया - तुम चुप रहे
उसने घोटाला किया - तुम चुप रहे
उसने देश को समझौते के नीचे दफन कर दिया - तुम चुप रहे
क्यों ? 
.. अब देखो न तुम्हें इस 'क्यों' पर टाँग 
मैंने अपने पग बढ़ा दिए हैं
एक और कुकर्म के पथ पर - 
उम्मीद है कि टँगे हुए तुम 
चुप रहोगे। 

रविवार, 14 मार्च 2010

मुंडेर पर अब कोई कबूतर नहीं

बन्द कर दिया लेटर बॉक्स का द्वार

तोड़ डाले सब मोबाइल,

मिटा दिए सब ई मेल पते...

ठहरे आँसू

टपके आज

तुम्हारे जाने के बाद ...

बहुत दिनों के बाद।

बरसे आँसू

बहुत दिनों के बाद

मुंडेर धुली

बहुत दिनों के बाद।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

.. ना

(1)
शुभ्र वसना !
शब्दों में रंग ना
कैसे उतारूँ चित्र सना
तुम्हारा अंग ना -
कोरा सजना
सज ना !

चंचल आँख ना
पलक कालिमा घना
सना
नेह यूँ आखना
मैं ताकता, ताक ना
शुभ्र वसना
सज ना !

रक्त अधर गुनगुना
गीत गुनगुना
शीत, गुनगुना
काँप चुप ना
गुनगुना
शुभ्र वसना
सज ना !

(2)
छोकरे तू गा ना गाना घनघन घना रुनझुना गीत तोड़ हर रीत बस प्रीत सना घनघन घना छोकरे नाच उठे हवा हवा हर अंग बजे झुनझुना केश फहरें भर भर लहरें उठान उठ्ठे और हो जाऊँ दिव्यांगना अंगना मचल छोकरे घनघन घना बाज ना सुर तोड़ यूँ साज ना सफल सजना जब दीठ चोर चोर ताक ना जग जाय सुरसुर कामना छोकरे तू साजना साज ना।

गाँव बड़ा उदास हुआ

शहर आ कर
गाँव बड़ा उदास हुआ।

शहर के भीतर
था एक शहर,
एक और शहर, एक और शहर ...
वैसे ही जैसे गाँव भीतर
टोले और घर ?

गँवार के भीतर भी
होते हैं कई गँवार
लेकिन गाँव उन्हें जानता है।
उनकी एक एक मुस्कान
उनकी हर गढ़ान
हर हरकत
सब जानता है -

शहरी के अन्दर
होते हैं कई शहरी -
शहर की छोड़ो
कोई शहरी तक इस बात को नहीं जानता !
या जानते हुए भी नहीं ध्यानता ?
शहर के इस अपरिचय से
गाँव हैरान हुआ
दु:खी हुआ ..

गठरी उठाई
पकड़ी चौराहे से एक राह
कि हवलदार ने गाली दी -
" समझते नहीं मुँह उठाए चल दिए
बड़े गँवार हो !"
शहर के इस परिचय से
गाँव उदास हुआ ...

.. छोड़ चल पड़ा
वापस आने के लिए-
अपरिचित परिचय
परिचित अपरिचय
से
 फिर उदास होने के लिए ..

मंगलवार, 9 मार्च 2010

पुरानी डायरी से - एक अंग्रेजी कविता और अनुवाद, I shall die

09032010 And a day when I shall die
My lyrics, my poems, my songs
Will also die with me.
A dead never utters -
I shall die.

Queen of the earth !
Your frozen lips shall touch my limbs
Slowly and very slowly
My spirit shall vanish
Like a piece of Camphoor
And I shall die.

In the murmur of leaves
In the striding steps of winds
In the tender shower and breeze
My breath shall linger and wait
But I shall die in solitude-
I shall die. 
और एक दिन जब मैं मर जाऊँगा
मेरे गीत, मेरी कविताएँ, मेरे गान
मेरे साथ मर जाएँगे
मृतक कभी नहीं बोलता -
मैं मर जाऊँगा।

धरा की रानी !
तुम्हारे हिम-अधर
करेंगे स्पर्श मेरे अंगों का
धीरे और बहुत धीरे
मेरी चेतना लुप्त होगी
कपूर के टुकड़े सी -
और मैं मर जाऊँगा।

पत्तियों की मर्मर में
पवनों के तेज कदमों में
मृदु वर्षा बूदों और झँकोरों में
रह जाएँगी मेरी साँसे प्रतीक्षित - 
लेकिन मैं मर जाऊँगा एकांत में
मैं मर जाऊँगा।

रविवार, 7 मार्च 2010

मैं कैसे शुरू करूँ ?

तुम्हारा दिवस
कहला रहा - 
तुम्हारी देहयष्टि
समूची सृष्टि का सौन्दर्य
तुम्हारी वाणी दुलराती लोरी
तुम्हारा स्पर्श 
मृत्यु और अस्तित्त्व के बीच 
जीवन राग ...

जाने क्या क्या कह जाता 
तुमने रोक दिया ।
फिर कहा - मैं भी मनुष्य 
मुझे विशिष्ट क्यों बनाते हो ?
क्यों सहज स्वीकार नहीं पाते हो ?
... तुम निरे पुरुष हो ! 

मैं चुप 
सोचता रहा 
क्या तुम नहीं होती 
कभी भी निरी नारी ? 
क्या सचमुच
मेरे कन्धे पर सिर रख 
कभी तुम न रोई ?
क्या सचमुच नहीं ठगा 
तुमने कभी अपनी मुस्कान से? 
क्या सचमुच 
कभी तुम्हें गर्व नहीं हुआ 
अपने नार्यत्व पर?
वैसे ही जैसे मुझे है 
अपने पौरुष पर - 

क्या तुम्हें नहीं लगता 
कोरी मनुष्यता की बात  
विशिष्टता का नकार है?
घबराए हम शाश्वत सत्य से 
जो हवा में हैं उड़ रहे ?
तुम कदम मिला कर चलो
या आगे चलो 
मैं वह हूँ जिसे सब स्वीकार है 
लेकिन 
मुझे कह तो लेने दो - 
.. मानो इसमें कोई कृत्रिमता नहीं
कोई छल नहीं 
कोई विकृति नहीं 
बस उमगे मन की.. 
झंकार है -
स्वीकार है तुम्हारा सब कुछ 
तुम भी मेरी अनुभूति स्वीकारो न ..
..कह लेने दो ..  
तुम्हारी देहयष्टि
समूची सृष्टि का सौन्दर्य
तुम्हारी वाणी दुलराती लोरी
तुम्हारा स्पर्श 
मृत्यु और अस्तित्त्व के बीच 
जीवन राग ...

.. चलो अब लड़ लें 
तुम ही शुरू करो - 
ऐसे 
"तुम्हें मैं बस चेरी, देह और 
भोग सामग्री नजर आती हूँ 
तुम्हें मैं मानसिक और शारीरिक 
दोनों पक्षों से अक्षम नजर आती हूँ.." 
अब तुम बताओ- 
मैं कैसे शुरू करूँ ? 

गाली

तुम बोले
मैं बोला
तुमने देखा
मैंने देखा
तुम चले भी
तो मैं दौड़ा -
पता नहीं
जाने कब
तुम सोचने लगे
कि मैं हूँ ही नहीं।

उस दिन जब तुमने
रेत में सिर छिपाया था
मैंने भी सिर झुकाया था
रेत की ओर तुम्हारे साथ।
जाने क्यों
जो देखा था
वह चुभने सा लगा था आँखों में
तुम सिर गाड़े पड़े रहे
और मैं
आँख फाड़े
निकालता रहा
रेत के कण - कण दर कण
.. जो अन्धेरा सामने था
और उजला होता गया
क्षण दर क्षण ..

अन्धेरा तुम्हारे साथ था
रेत में आँख जो मूँदे थे
अन्धेरा मेरे साथ था
आँख जो खोले था मैं ...

अब जब कि तुम
रेत में सिर गाड़े
अपने पैरों को पटक
यह जता रहे हो
कि मैं वंचक हूँ ..
ठीक उसी समय
मैं चिल्ला रहा हूँ ...
"देखते रहो
अन्धेरा घना है"
ठीक इसी समय
तुम खोज रहे हो
अपने मन-शब्दकोष में
मेरे योग्य कोई
सुसंस्कृत परिष्कृत
जटिल अबूझ सी -
गाली

शनिवार, 6 मार्च 2010

पाखी ! न बोल।

पाखी !
न बोल साखी 
हवा साखी 
पेंड़ साखी 
मानुख न सुनेगा
न आएगी बारी 
पाखी न बोल -
साखी।

छाँव सूखे
पत्ते इकठ्ठे 
कोई न बैठे  
जो सुने साखी 
न बोल -
पाखी।

न बोल 
बच्चे - 
नहीं किलकते ।
एनीमेशन 
उम्दा पाखी  
सम्मोहित देखते
आँखें निकलीं 
पसरी खामोशी 
आवाज चहचह 
इलेक्ट्रॉनिक -
पाखी न बोल। 

तेरे बोल 
कभी गीत
कभी साखी
कभी लोरी
कभी फुसलावन
कभी बस मनभावन - 
थे - 
अब नहीं हैं । 
... बहरे हैं -
पाखी न बोल। 

सोमवार, 1 मार्च 2010

आज रंग है !

रंग हुड़दंग
अनंग संग भंग है
आज रंग है।

राति नींद नहिं आइ गोरि
सपन साँवरे भर भर अँकवारि
नशाय नसाय दियो उमंग है
आज रंग है।

चहका मन चमक चम
चौताल ताल नाचे तन
साजन बुढ़ाय पर
जवान जबर देवर देख
धधका बदन मदन संग
मचा जोबन सरर जंग
हुइ चोली जो तंग है
आज रंग है।

बौराया आम ढींठ हुआ
बयार के झँकोर बहाने
घेर गया नेह गन्ध ।
पड़ोसी की साँस सूँघ
तीत नीम मीठ हुई
फगुआ का संग है!
आज रंग है।

जाने कितने बरस बीते
मितऊ से बात किए ।
चढ़ाय लियो भाँग आज
कह देंगे दिल के राज
खींच लाएँगे आँगन बार
मिट जाँयगे बिघन खार-
लगाना तंगी को तंग है
आज रंग है।