तुम्हारा दिवस
कहला रहा -
तुम्हारी देहयष्टि
समूची सृष्टि का सौन्दर्य
तुम्हारी वाणी दुलराती लोरी
तुम्हारा स्पर्श
मृत्यु और अस्तित्त्व के बीच
जीवन राग ...
जाने क्या क्या कह जाता
तुमने रोक दिया ।
फिर कहा - मैं भी मनुष्य
मुझे विशिष्ट क्यों बनाते हो ?
क्यों सहज स्वीकार नहीं पाते हो ?
... तुम निरे पुरुष हो !
मैं चुप
सोचता रहा
क्या तुम नहीं होती
कभी भी निरी नारी ?
क्या सचमुच
मेरे कन्धे पर सिर रख
कभी तुम न रोई ?
क्या सचमुच नहीं ठगा
तुमने कभी अपनी मुस्कान से?
क्या सचमुच
कभी तुम्हें गर्व नहीं हुआ
अपने नार्यत्व पर?
वैसे ही जैसे मुझे है
अपने पौरुष पर -
क्या तुम्हें नहीं लगता
कोरी मनुष्यता की बात
विशिष्टता का नकार है?
घबराए हम शाश्वत सत्य से
जो हवा में हैं उड़ रहे ?
तुम कदम मिला कर चलो
या आगे चलो
मैं वह हूँ जिसे सब स्वीकार है
लेकिन
मुझे कह तो लेने दो -
.. मानो इसमें कोई कृत्रिमता नहीं
कोई छल नहीं
कोई विकृति नहीं
बस उमगे मन की..
झंकार है -
स्वीकार है तुम्हारा सब कुछ
तुम भी मेरी अनुभूति स्वीकारो न ..
..कह लेने दो ..
तुम्हारी देहयष्टि
समूची सृष्टि का सौन्दर्य
तुम्हारी वाणी दुलराती लोरी
तुम्हारा स्पर्श
मृत्यु और अस्तित्त्व के बीच
जीवन राग ...
.. चलो अब लड़ लें
तुम ही शुरू करो -
ऐसे
"तुम्हें मैं बस चेरी, देह और
भोग सामग्री नजर आती हूँ
तुम्हें मैं मानसिक और शारीरिक
दोनों पक्षों से अक्षम नजर आती हूँ.."
अब तुम बताओ-
मैं कैसे शुरू करूँ ?
देख रहा हूँ , कुरुक्षेत्र की कमान शब्दों ने सम्हाल ली है ! अच्छा तो है !
जवाब देंहटाएं.
@ अब तुम बताओ-
मैं कैसे शुरू करूँ ?
.......... इतनी भी व्यग्रता के दिन नहीं आये हैं !
.
अच्छा तो यह लग रहा है कि नारी के मानवी - रूप से संवाद चल रहा है
आपका , नहीं तो लोग उसे 'रहस्यवादी' संस्कृति-निष्ठ जामा पहना देते हैं !
फिर बचता ही क्या है !
अक्सर कविताएं क्लोसड लूप में चलती देखी हैं...तार्किक रूप से अंजाम तक पहुंचाई हुई.....लेकिन यहां जब नारी का पक्ष आ गया तो आपने पुरूष के लिये लूप ओपन रखा.....एकदम सम पर आते आते कविता को उछाल सा दिया।
जवाब देंहटाएंमस्त एकदम झकास।
इस पर मेरा कुछ कहना जायज नही रहेगा,सिर्फ़ एक शब्द ही कह पाऊंगा सटीक।
जवाब देंहटाएंयह जुगलबन्दी अब बोर कर देगी...
जवाब देंहटाएंआप सबने जितना रच दिया उसके बाद अब कुछ नया नहीं आने वाला है। अब चर्चा मन्द पड़ जाय वही अच्छा।
आपकी कविता लाजवाब है।
आनन्द आ गया। कितनी सुनियोजित और सुव्यवस्थित लड़ाई की तैयारी है आपकी...!!! वाह, क्या कहने?
फिर कहा - मैं भी मनुष्य
जवाब देंहटाएंमुझे विशिष्ट क्यों बनाते हो ?
क्यों सहज स्वीकार नहीं पाते हो ?
... तुम निरे पुरुष हो !
बहुत ही सुंदर ओर भाव पुर्ण कविता
धन्यवाद
अदभुत....
जवाब देंहटाएंविशिष्ट.....
प्रभावशाली रचना
क्या सचमुच
जवाब देंहटाएंकभी तुम्हें गर्व नहीं हुआ
अपने नार्यत्व पर?
वैसे ही जैसे मुझे है
अपने पौरुष पर
समस्या यहीं तो है...
नार्यत्व और पौरुष की परिभाषाओं में...
नारी को पुरूष की नार्यत्व और पौरुष की परिभाषा स्वीकार नहीं...वह उसके अपने निरपेक्ष व्यक्तित्व को महसूसना चाहती है...
पुरूष को नारी की इनकी परिभाषाएं पच नहीं रही...
इस ओर दृष्टिपात करवाती कविता....
अब शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी ना कहीं ना कहीं से तो.....
जवाब देंहटाएंवाह राव साहब ! वाह !
जवाब देंहटाएंमुझे कब थी आदत तेरे दाद की
जवाब देंहटाएंयूँ ही कसते रहो फ़िकरे लाजवाब
अब रोके तुम्हें कौन, कुछ भी कहो
मेरी चुप्पी रहेगी तुम्हारा जवाब
कुरुक्षेत्र नहीं , लड़ाई नहीं - वाद, प्रतिवाद और पूर्वग्रह के वातावरण में छिप गए मूल सन्दर्भों को कुरेदा भर है। समता के वातावरण में, वर्तमान युग में स्त्री को भी पता होना चाहिए कि पुरुष की दुखती रग क्या है। जटिल ढाँचों से जूझता पुरुष, पुरुष सूक्त का पुरुष नहीं है। रवि जी सही कह रहे हैं - रूढ़ परिभाषाएँ, मान्यताएँ बदलनी चाहिए लेकिन प्रतिक्रियावाद की झोंक में नहीं।
जवाब देंहटाएंउनको दाद लगे फिकरे लगे लाजवाब लगे
हम आह भरते रहे यूँ ही, सहज गाते रहे
साथी चुप ही रहे ओढ़ गुरुता की चादर
तारीफ करते रहे, सुनते रहे, गुनगुनाते रहे
हो न उनको इल्म पर हमें है यकीं
बजेगी बंसी जो गीत हम ऐसे सजाते रहे।
तुम्हारी वाणी दुलराती लोरी
जवाब देंहटाएंतुम्हारा स्पर्श
मृत्यु और अस्तित्त्व के बीच
जीवन राग ...
" बेहद प्रभावित करता ये संवाद और ये कुछ खास पंक्तिया मन को छु गयी....."
regards
"हो न उनको इल्म पर हमें है यकीं
जवाब देंहटाएंबजेगी बंसी जो गीत हम ऐसे सजाते रहे।"
वाह ! वाह !
कविता के बाद पूछा जा सकता है..
"क्या तुम निरे पु्रुष हो ?"
तुम्हारा स्पर्श
जवाब देंहटाएंमृत्यु और अस्तित्त्व के बीच
जीवन राग ...
वाह ! सहमत !!
क्या सचमुच
कभी तुम्हें गर्व नहीं हुआ
अपने नार्यत्व पर?
नार्यत्व ही ठीक है वैसे गूगल नारीत्व ही लिख रहा है पहले
क्यूं नहीं गर्व होता वह ऐसे ही रूप गर्विता थोड़े ही कहलाई
.कह लेने दो ..
तुम्हारी देहयष्टि
समूची सृष्टि का सौन्दर्य
तुम्हारी वाणी दुलराती लोरी
तुम्हारा स्पर्श
मृत्यु और अस्तित्त्व के बीच
जीवन राग ...
आखिर इस शाश्वत सत्य से क्यूं इनकार क्यूं क्यूं क्यूं
बाकी तो आपकी जवाबी टिप्पणी ने सब कुछ कह ही दिया है
आज आपकी तीन कवितायें पढ़ी... एक साथ. दिमाग एक अलग डाईमेंसन में चला जाता है.
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