शुक्रवार, 12 मार्च 2010

.. ना

(1)
शुभ्र वसना !
शब्दों में रंग ना
कैसे उतारूँ चित्र सना
तुम्हारा अंग ना -
कोरा सजना
सज ना !

चंचल आँख ना
पलक कालिमा घना
सना
नेह यूँ आखना
मैं ताकता, ताक ना
शुभ्र वसना
सज ना !

रक्त अधर गुनगुना
गीत गुनगुना
शीत, गुनगुना
काँप चुप ना
गुनगुना
शुभ्र वसना
सज ना !

(2)
छोकरे तू गा ना गाना घनघन घना रुनझुना गीत तोड़ हर रीत बस प्रीत सना घनघन घना छोकरे नाच उठे हवा हवा हर अंग बजे झुनझुना केश फहरें भर भर लहरें उठान उठ्ठे और हो जाऊँ दिव्यांगना अंगना मचल छोकरे घनघन घना बाज ना सुर तोड़ यूँ साज ना सफल सजना जब दीठ चोर चोर ताक ना जग जाय सुरसुर कामना छोकरे तू साजना साज ना।

13 टिप्‍पणियां:

  1. wowwww बस इससे अधिक कहने कि क्षमता नहीं मेरी.

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  2. रक्त अधर गुनगुना...गीत गुनगुना
    शीत, गुनगुना.....काँप चुप ना
    गुनगुना....शुभ्र वसना...सज ना
    एक साहित्यिक रचना.

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  3. ग़जब ढा रहे हैं... ना... ना... गा रहे हैं...।

    गाइए... गाइए... :)

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  4. ,,,,,,,,,,,,,,,, कविता में
    आपका यमकना !
    शब्द घना !
    बज ना !
    बरज ना !
    मान गए सज ना !
    भूल गए ,
    आचारज ना !

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  5. इस पर संगीत कैसा होगा । कल्पना करें । कुछ कुछ विशेष, औरों से अलग । वाह ।

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  6. हिन्दी की पूर्व-परम्परा इतनी सशक्त है कि उसमें ऐसे नवीन-निर्माण तो होंगे ही ! अब लोगों को नये प्रभात पवन का डर हो तो हो ! यह नया काव्य-विहग है, नई क्रीड़ा से देखेगा आकाश !

    संभव है यह नई उड़ाने कोई नया क्षितिज रचें !

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