बुधवार, 20 सितंबर 2017

क्षत्रिय मैं

पढ़ते हुये झुरझुरी होती है?
कोमलता कुम्हलाने लगती है??
...
सोचो कि लिखते हुये मैंने,
तोड़ी होंगी कितनी बेड़ियाँ
चढ़े होंगे कितने साहस सोपान
उस बिंदु तक जिसके आगे
आत्माहुति होती है कि जीना
यही है मित्र! न पार करता कोई
विश्वामित्र जो सिंधु कोई मधुच्छंद
रथों की दुर्धर्ष गति जलराशि से
रुकती, डूबते अश्व थल गुंजाल में
स्फीत वक्ष पेशियाँ वल्गाम स्नायु
तंतु तने कि मैंने रचे जीवनसूत्र
नये नवोन्मेष का रथी सारथी मैं
मैं हूँ महाक्षत्रिय जिसके रक्त में
जेजाकभुक्ति बलि शृंगार वृष
वासना जिसकी करती बातें
खिलखिलाती नदियों के तीर से
भेदती जिसकी दृष्टि क्षितिज को
पार कर उतार लाती संझाओं में
संझा भाखा सविता शिवनाथ
मैं भरत हूँ अग्नि सूर्य वरुण मित्र
सोम मैं आहुति मेरी पीते देव दे
पितरों को चषक नवसंस्कार को
तकती है भूमा मेरी दीठ को भेद
समुद्र के अतल तल भण्डार से
ला रत्न मैं मढ़ता हूँ मेदिनी कि
घूमें मेरे अश्व लिये मेध मैध्य देह
मेधा रचे नये आवर्त चक्र ऋत
बंध को विस्तार को निर्माण को
सोचो कि कितने ध्वंस होंगे पड़े
एक इस अस्तित्त्व में जानो कि
निर्भय नवोन्मेष का चक्रवर्ती
मैं क्षत्रिय अप्रतिहत रुद्र की 
निचोड़ जटायें उतार लाता जो
गङ्गा पृथ्वी करने को उर्वरा
रोता नहीं भस्म को देख जो
तप्त कर सान चढ़ता है स्वयं
हिम शीतल मृत्यु की गोद में
सोचो कि लिखते हुये मैंने,
तोड़ी होंगी कितनी बेड़ियाँ
चढ़े होंगे कितने साहस सोपान
उस बिंदु तक जिसके आगे
आत्माहुति ही होती है जीना।

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

वाशिंग मशीन के युग में

वाशिंग मशीन के युग में भी
मेरी श्वेत शर्ट की पीठ भिगो
हाथों से घिस घिस कर झक्क
उजली रखती हो जो चंदन
घिसाई हो रहती है पूजा की
माथे मेरे सजतीं प्रतिदिन
श्रुति संध्यायें आख्यान संकल्प
हो! मैं द्रष्टा होता हूँ हर दिन।

बुधवार, 4 जनवरी 2017

अटकन चटकन



तुम्हें बचाने को।
आखेटकों को शाक्य सिंह बनाने को।

 
मैंने
इस पृष्ठ पर कविता रची है
अगले पर एक नारा
उससे आगे एक नाटक
उसके पीछे एक ढपली।
देखो न!
क्रान्ति होने को है।
आँखें नहीं खुल रहीं?

द्रव पात्र में एक कैपशूल कम डालना था न
अलुमिनियम पट्टी से दो कस कम सूँघने थे
•••
दूर हटो सूअर कहीं के
सारे मर्द भेंड़िये होते हैं
मल भरे मन वाले।
 
होते कौन हो तुम मेरा चषक
मेरी पन्नी सूँघने वाले?
•••
क्रान्ति तब मानी जायेगी
जब ऐसे में भी मुझे कोई न छुये।

छूना मत मुझे नीच!
यू मेल सुविनिस्ट!

बस घर पहुँचा दो
पाँव जमीं पर नहीं मेरे
देखो मुझे उड़ते हुये।

जलो कि मैं आजाद हूँ -
घर तक छोड़ दो मुझे रास्कल,
इतनी भी सभ्यता बची है या नहीं?
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है कालिदास के रघुवंश में
वह कठोर राज, दण्ड आदर्श।
 
आभूषणों से लदी मदमत्त स्त्री अकेली
वारांगना
रात भर खुले में पड़ी रही
किसी ने कुछ न चुराया
न लूटा।
 
बन्द करो अपनी नोटबुक
जाओ! ले आओ 
कालिदास सा कवि
दिलीप सा शासक,
तब तक मुझे पीने दो।

घर स्थगित है।
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(दिलीप के राज्यानुशासन की महिमा बताते सुनन्दा वह कहती है जो आज कल के उन्नत समाज के लिये आदर्श कहा जा सकता है।
उनका शासन ऐसा था कि स्वच्छंद यौन स्वभाव वाली स्त्री भी यदि रात भर विहार के पश्चात बेसुध बीच मार्ग पर श्रांत पड़ी हो तो चोर या पतित तो हाथ लगाने से रहे, उसके वस्त्रों को वायु तक नहीं हिला सकती थी!
यस्मिन्महीम् शासति वाणिनीनाम् निद्राम् विहारार्धपथे गतानाम्।
वातोऽपि नास्रंसयदंशुकानि को लम्बयेदाहरणाय हस्तम्॥)
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'उत्कृष्ट सौन्दर्यबोध' और 'मातृपक्ष के प्रति अगाध सम्मान' - इन दो की साधना जब तक 'स्त्री पुरुष दोनों' नहीं करेंगे, जब तक उन्हें अस्तित्त्व का अनिवार्य भाग जैसा नहीं कर दिया जायेगा, तब तक स्थिति सुधरने से रही।
छोड़िये, मैं भी क्या ले कर बैठ गया! ये पढ़िये, सुनिये और देखिये:
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सीढ़ियों पर चढ़ती और उतरती मानव देह के सौन्दर्य के तीन दृश्य:
(1) कालिदास: रघुवंश:
काकुत्स्थ कुमार अज स्वयंवर आयोजन में स्थान ग्रहण करने जा रहे हैं। ऐसे समय में पुरुष सौन्दर्य का संभवत: यह इकलौता वर्णन हो।
वैदर्भनिर्दिष्टमसौ कुमारः कॢप्तेन सोपानपथेन मञ्चम्|
शिलाविभङ्गैर्मृगराजशावस्तुङ्गम् नगोत्सङ्गमिवारुरोह॥
(ऊँचे मंच पर पहुँचने के लिये सीढ़ियों पर चढ़ते कुमार अज ऐसे लग रहे हैं जैसे कोई सिंह शावक पर्वत शिखर पर पहुँचने के लिये तराशे पत्थर के सोपान चढ़ रहा हो।)


(2) दानिश:
 सुन्दर कोमलांगी दुल्हन विवाह हेतु सजने के पश्चात छत से नीचे उतर रही है।

बाम से उतरती है जब हसीन दोशीज़ा
जिस्म की नज़ाक़त को सीढ़ियाँ समझती हैं।

हुसैन बन्धुओं ने इस ग़जल को गा कर अमर कर दिया।
https://www.youtube.com/watch?v=o7eNtz4INL0

  
(3) टाइटेनिक में सीढ़ी चढ़ती रोज का स्वागत डॉसन करता है - "I saw that on A Nickelodeon and I always wanted to try it."