शिक्षा भयभीत करती है
जो जितना ही शिक्षित है
उतना ही भयग्रस्त है।
उतने ही बन्धन में है ।
गीता गायन पर मुझे हँसी आती है
मन करता है गाऊँ -
होली के फूहड़ अश्लील कबीरे।
मुझे उनमें मुक्ति सुनाई पड़ती है।
बाइ द वे
शिक्षा की परिभाषा क्या है ?
शिक्षा , भय सब पेंसिल की नोक
जैसे चुभो रहे हों
मुझे याद आता है – सूरदास आचार्य जी का दण्ड
मेरी दो अंगुलियों के बीच पेंसिल दबा कर घुमाना!
वह पीड़ा सहते थे मैं और मेरे साथी
आचार्य जी हमें शिक्षित जो बना रहे थे !
हमें कायर, सम्मानभीरु और सनातन भयग्रस्त बना रहे थे
हम अच्छे बच्चे पढ़ रहे थे
घर वालों, बाप और समाज से तब भी भयग्रस्त थे
वह क्या था जो हमारे बचपन को निचोड़ कर
हमसे अलग कर रहा था?
जो हमें सुखा रहा था ..
नरक ही साक्षात था जो गुजरने को हमें तैयार कर रहा था।
आज जो इस नरक के रस्ते चल रहा हूँ
सूरदास की शिक्षा मेरी पथप्रदर्शक बन गई है...
अप्प दीपो भव .. ठेंगे से
अन्धे बुद्धों! तुम मानवता के गुनहगार हो
तुम्हारे टेंटुए क्यों नहीं दबाए जाते?
तुम पूजे क्यों जाते हो?...
..यहाँ सब कुछ ठहर गया है
कितना व्यवस्थित और कितना कम !
गन्ना मिलों के भोंपू ही जिन्दगी में
सिहरन पैदा करते हैं,
नहीं मैं गलत कह रहा हूँ –
ये भोंपू हैं इसलिए जिन्दगी है। ..
ये भोंपू बहुत सी बातों के अलावा
तय करते हैं कि कब घरनी गृहपति से
परोसी थाली के बदले
गालियाँ और मार खाएगी।
कब कोई हरामी मर्द
माहवारी के दाग लिए
सुखाए जा रहे कपड़ों को देख
यह तय करेगा कि कल
एक लड़की को औरत बनाना है
और वह इसके लिए भोंपू की आवाज से
साइत तय करेगा
कल का भोंपू उसके लिए दिव्य आनन्द ले आएगा।
... और शुरुआत होगी एक नई जिन्दगी की
जर्रा जर्रा प्रकाशित मौत की !!
वह हँसती हुई फुलझड़ियाँ
अक्कुड़, दुक्कुड़
दही चटाकन बर फूले बरैला फूले
सावन में करैला फूले गाती लड़कियाँ
गुड़ियों के ब्याह को बापू के कन्धे झूलती लड़कियाँ
अचानक ही एक दिन औरत कटेगरी की हो जाती हैं
जिनकी छाया भी शापित
और जिन्दगी जैसे जाँघ फैलाए दहकता नरक !
..कभी एक औरत सोचेगी
माँ का बताया
वही डोली बनाम अर्थी वाला आदर्श वाक्य!
क्या उस समय कभी वह इस भोंपू की पुकार सुनेगी
चित्त फरिया रहा है
मितली और फिर वमन !
... चलो कमरे से जलते मांस की बू तो टली ।
कमरे में धूप की पगडण्डी बन गई है
हवा में तैरते सूक्ष्म धूल कण
आँख मिचौली खेल रहे
अचानक सभी इकठ्ठे हो भागते हैं
छत की ओर !
रुको !!
छत टूट जाएगी
मेरे सिर पर गिर जाएगी
..अचानक छत में हो गया है
एक बड़ा सा छेद
आह ! ठण्डी हवा का झोंका
घुसा भीतर पौने दस का भोंपा !
मैं करवट बदलता हूँ
सो गया हूँ शायद..
चन्नुल जगा हुआ है।
तैयार है।
निकल पड़ता है टाउन की ओर
जाने कितने रुपए बचाने को
तीन किलोमीटर जाने को
पैदल।
खेतों के सारे चकरोड
टोली की पगडण्डियाँ
कमरे की धूप डण्डी
रिक्शे और मनचलों के पैरों तले रौंदा जाता खड़ंजा
...
ये सब दिल्ली के राजपथ से जुड़ते हैं।
राजपथ जहाँ राजपाठ वाले महलों में बसते हैं।
ये रास्ते सबको राजपथ की ओर चलाते हैं
इन पर चलते इंसान बसाते हैं
(देवगण गन्धाते हैं।)
कहीं भी कोई दीवार नहीं
कोई द्वार नहीं
राजपथ सबके लिए खुला है
लेकिन
बहुत बड़ा घपला है
पगडण्डी के किनारे झोंपड़ी भी है
और राजपथ के किनारे बंगला भी
झोंपड़ी में चेंचरा ही सही – लगा है।
बंगले में लोहे का गेट और खिड़कियाँ लगी हैं
ये सब दीवारों की रखवाली करती हैं
इनमें जनता और विधाता रहते हैं ।
कमाल है कि बाहर आकर भी
इन्हें दीवारें याद रहती हैं
न चन्नुल कभी राजपथ पर फटक पाता है
न देवगण पगडण्डी पर।
बँटवारा सुव्यवस्थित है
सभी रास्ते यथावत
चन्नुल यथावत
सिक्रेटरी मिस्टर चढ्ढा यथावत।
कानून व्यवस्था यथावत।
राजपथ यथावत
पगडण्डी यथावत
खड़न्जा यथावत।
यथावत तेरी तो ...
.. मालिक से ऊँख का हिसाब करने
चन्नुल चल पड़ा अपना साल बरबाद करने
हरे हरे डालर नोट
उड़ उड़ ठुमकते नोट
चन्नुल आसमान की ओर देख रहा
ऊँची उड़ान
किसान की शान
गन्ना पहलवान । (जारी)
आचार्य जी हमें शिक्षित जो बना रहे थे !
जवाब देंहटाएंहमें कायर, सम्मानभीरु और सनातन भयग्रस्त बना रहे थे
हम अच्छे बच्चे पढ़ रहे थे....
....अन्धे बुद्धों! तुम मानवता के गुनहगार हो
तुम्हारे टेंटुए क्यों नहीं दबाए जाते?
तुम पूजे क्यों जाते हो?...
...कब कोई हरामी मर्द....
....राजपथ यथावत
राव साहब..!! क्या इतना यथार्थ कविता झेल पायेगी..?
पगडण्डी यथावत
खड़न्जा यथावत।
यथावत तेरी तो ..
ये भोंपू हैं इसलिए जिन्दगी है। ..
जवाब देंहटाएंये भोंपू बहुत सी बातों के अलावा
तय करते हैं कि कब घरनी गृहपति से
परोसी थाली के बदले
गालियाँ और मार खाएगी।
कब कोई हरामी मर्द
माहवारी के दाग लिए
सुखाए जा रहे कपड़ों को देख
यह तय करेगा कि कल
एक लड़की को औरत बनाना है
और वह इसके लिए भोंपू की आवाज से
साइत तय करेगा
कल का भोंपू उसके लिए दिव्य आनन्द ले आएगा।
... और शुरुआत होगी एक नई जिन्दगी की
जर्रा जर्रा प्रकाशित मौत की !!
हम सोच रहे हैं.......क्या आपकी कलम की तारीफ करने की ताब मुझमें हैं ?
शायद नहीं.....क्यूंकि इसकी क्या तारीफ करें....जब मुझे मालूम है तारीफ कम हो ही जायेगी...
यह बहुत सच उगलती है....बस उगलने दीजियेगा.......हमेशा..
गिरिजेश जी,
जवाब देंहटाएंआपके अवचेतन के सरोकार ज़्यादा व्यवस्थित और स्पष्टता के साथ उभर कर आ रहे हैं।
भले ही यह आपका एकान्तिक आत्मालाप सा लगता है, या यूं कहें कि आपने इसे जानबूझ कर यह रूप दिया है।
आपकी चेतनता कहीं मुक्तिबोध की दुरूहता का अतिक्रमण करने की इच्छा रखती है, पर आपका अवचेतन उसी परंपरा से जूझ रहा है।
आखिर हमारे चेतन सरोकार, हमारे अवचेतन में ज़्यादा मुखर होते हैं।
ज़्यादा मारक होते हैं।
यह श्रृंखला आपके आत्ममंथन की अधिक साफ़ तस्वीर पेश कर रही है। अच्छा लगा।
शुक्रिया।
सबसे बडी विशेषता लम्बी कविता की है कि पढना शुरू कर दो तो अंत में पहुंचा कर ही रुकने देती है । पढते हुए ऐसा लगता है जैसे कोई अर्धचेतन अवस्था में सतत बोल रहा हो । एक समय के यथार्थ का दस्तावेज है यह जिसे हम महसूस करते कविता के साथ चलते हुए ।
जवाब देंहटाएंघुटन और बेचारगी और मुर्गे बनकर , पिटपिटाकर बडी हुई , अतीत के दामन में सिर छुपाये यथास्थितिवादी पीढियॉं । चाहे जितनी भी तकलीफ दे पर यह एक सच है ।
"निकल पड़ता है टाउन की ओर
जवाब देंहटाएंजाने कितने रुपए बचाने को
तीन किलोमीटर जाने को
पैदल। "
एक स्वयं से जुडी हुई लाइन नहीं मिलती तो आज निशब्द ही निकल गया होता इस रास्ते से !
राव साहब .. मुझे सिर्फ इतना कहना है कि यह आग बढने दीजिये .. आपके भीतर का कवि जाग गया है । कई बार निराशा होती है ऐसा लगता है कि हम वह सब नहीं हासिल कर पा रहे हैं जो हम चाहते है जिसे लिख लिख कर हमने ढेर लगा दिया है ..और ऐसी स्थिति मे निराशा भी उपजती है लेकिन यह कवि ( जो वास्तव मे कवि है ) बहुत जीवट किस्म का होता है .. वह न आउट्साइडर बनता है न आत्महत्या करता है बस लिखे जाना उसकी नियति है । अभी चलने दीजिये जल्दी ही मै भी आ रहा हूँ लम्बी कविता के साथ ।
जवाब देंहटाएंमुझे गुजरने दीजिये इस कविता से । टुकड़ों में नहीं कहूँगा । छटपटाहट-सी हो रही है । कैसी? पता नहीं ! आजकल एक दूसरी ही यातना से गुजर रहा हूँ - आपकी दी हुई ! कैसी-अभी बता नहीं सकता ।
जवाब देंहटाएंशिक्षा भयभीत करती है
जवाब देंहटाएंजो जितना ही शिक्षित है
उतना ही भयग्रस्त है।
इसको मै अब तक ऐसे सोचता था ......अधिक किताबे व्यक्ति को नपुंसक बना देती है !
कविता पर अभी कुछ नही कह रहा हूँ .......या कह नहीं पा रहा हूँ ......थोड़ा वक्त लगेगा ! .....वैसे अब ...धीरे धीरे समझ में आ रहा है की ब्लॉग के टाइटिल में कविताओ के साथ साथ "कवि भी " से क्या तात्पर्य है !
जवाब देंहटाएंयीट्स को तो पढ़ा ही होगा ......उसको भी ऐसे ही आप की तरह "विजन" आते थे ........"मीयर अनार्की इज लूज्ड.....थिंग्स फाल अपार्ट ......सेंटर कैन नाट होल्ड ! "
जवाब देंहटाएं@ नरक के रास्ते २-
जवाब देंहटाएंलव सांग आफ जे .अल्फ्रेड प्रूफ्राक !
@ chitr
जवाब देंहटाएंनाक थोड़ी सी बड़ी है आपकी ! :) इसकी वजह से ही शायद इस फोटो में वह सेन्स आ रहा है जो आप देना चाह रहे है !
... प्रभावशाली रचना !!!!
जवाब देंहटाएंकोई खण्डकाव्य रचा जा रहा है, लगता है ।
जवाब देंहटाएं....गुज़र रहे हैं नरक के रस्ते ...
जवाब देंहटाएं.पढ़ रहे हैं ...लगातार..
.बार -बार ...
Bahut badhiya sahab...
जवाब देंहटाएंस्वप्न
जवाब देंहटाएंस्वप्न अनेकों.....
कुछ अर्ध-निद्रा के,
कुछ अतृप्त इच्छाएँ....प्रसवरत!
दिवास्वप्न तैरते हुए.....
स्वप्न समुद्र
आलोडित,
ज्वार-
बिखरते हुए!
फेन बनती हुई-
गाज बैठ्ती हुई!
सर्प-गुंजलक
विष-वमन!
अंधकार-सर्वत्र
स्वप्न समुद्र
पुन: आलोडित!
और मैं-
अर्ध-निद्रित
अर्ध-जागृत!
वो जो महसूस होता है ...वो शब्दों में उतरने की बेहतरीन कोशिश....जो कामयाब भी है!
जवाब देंहटाएंMor Buppa Re... Ittti lumbi Kavita.
जवाब देंहटाएंKa Bhaiya. Suii Dhaga le kar Baithe Rahe ka ?
शिक्षा भयभीत ही नहीं करती
जवाब देंहटाएंबनाती है कायर और भीरु भी,
रोकती है जीने से
लेने से सांस भी
पर शिक्षा का ये अर्थ भी हमने चुना है
कुछ लोग शिक्षा से बन जाते हैं
निर्भय निडर दुस्साहसी दुर्दांत
समाज के शत्रु