गुरुवार, 12 नवंबर 2009

नरक के रस्ते - 1

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मुक्ति पानी ही है
चाहे गुजरना पड़े
हजारो कुम्भीपाकों से ।...
यह कविता नहीं, जाने क्या है। क्यों लिख रहा हूँ? मन अभी तक साफ नहीं है। असल में यह भूत को दुबारा जीने सा है। सम्भवत: पहले के इस लेख से आप कुछ समझ पाएँ। कविता का कंफ्यूजन कहीं आज से भी जुड़ता सा है। आदमी की जान पर बहुत बवाल हैं।
कहीं धिक्कार है कि पाठकों को क्यों तकलीफ दे रहे हो? लेकिन यह सब साझा होना चाहिए, इस चाह का क्या करूँ? लिहाजा स्वार्थी हो कर पोस्ट कर रहा हूँ। आप के उपर पढ़ना या छोड़ना; टिपियाना या न टिपियाना छोड़ता हूँ। पता है कि यह कथन भी बेहूदा और ग़ैरजरूरी है लेकिन जो है सो है। 
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तकिया गीली है।
आँखें सीली हैं?
आँसू हैं या पसीना ?
अजीब मौसम
आँसू और पसीने में फर्क ही नहीं !
...... कमरे में आग लग गई है।
आग! खिड़कियों के किनारे
चौखट के सहारे दीवारों पर पसरी
छत पर दहकती सब तरफ आग !
बिस्तर से उठती लपटें
कमाल है एकदम ठंडी
लेकिन शरीर के अन्दर इतनी जलन खुजली क्यों?
दौड़ता जा रहा हूँ
हाँफ रहा हूँ – बिस्तर के किनारे कमरे में कितने ही रास्ते
सबमें आग लगी हुई
साथ साथ दौड़ते अग्नि पिल्ले
यह क्या ? किसने फेंक दिया मुझे खौलते तेल के कड़ाहे में?
भयानक जलन खाल उतरती हुई
चीखती हुई सी गलाघोंटू बड़बड़ाहट
झपट कर उठता हूँ
शरीर के हर किनारे ठंढी आग लगी हुई
पसीने से लतपथ . . निढाल पसर जाता हूँ
पत्नी का चेहरा मेरे चेहरे के उपर
आँखों में चिंन्ता – क्या हुआ इन्हें ?
अजीब संकट है
स्नेहिल स्त्री का पति होना।
कृतघ्न, पाखंडी, वंचक .... मनोवैज्ञानिक केस !
क्यों सताते हो उस नवेली को ?
.... सोच संकट है। क्या करूँ?
... भोर है कि सुबह?
पूछना चाहता हूँ
आवाज का गला किसने घोंट दिया?
खामोश चिल्लाहट ...|
... ”अशोच्यानन्वशोचंते प्रज्ञावादांश्च .....”
पिताजी गा रहे हैं
बेसमझ पारायण नहीं
गा रहे हैं।
... आग अभी भी कमरे में लगी हुई है।
लेकिन शमित हो रहा है
शरीर का अन्दरूनी दाह ।
शीतल हो रही हैं आँखें
सीलन नहीं, पसीना नहीं
..पत्नी का हाथ माथे पर पकड़ता हूँ
कानों में फुसफुसाहट
“लेटे रहिए
आप को तेज बुखार है।“ ...
(जारी...)        

12 टिप्‍पणियां:

  1. लगता है किसी दूसरी दुनिया में विचरण करते हुए अचानक धरती पर लौट आए हों। कोई बुरा सपना जैसा देखा हो। अगली कड़ी में शायद बात साफ हो।

    अपने प्रति इतने सजग रहेंगे तो कुछ बुरे खयाल आते ही रहेंगे। मनुष्य की कुछ सीमाएं भी तो हैं। ...फिर नरक की कोटियाँ भी अनगिनत हैं। लेकिन इसमें वितण्डावाद बहुत है।

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  2. सुन्दर ,कविता समसामयिक चित्रण कर रही है !

    नदी किनारे धुँआ उठत है, मै जानू कुछ होय,
    जिसके कारण मैं जला, वही न जलता होय !!

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  3. सारी जाली जल गयी पर जला न एक भी धागा
    भोला मालिक फंस गया, घर निकल खिड़की से भागा

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  4. आग भी ठंडी ..
    लपट भी ठंडी ..
    कोई ज़बरदस्ती की बुनावट नहीं ..सहज उतरे भाव ..

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  5. आप की रचना पाठक को अनजानी राहों पर ले जाती है जहाँ बर्फ सी ठंडक भी है तो सहराओं सी गर्मी भी...अद्भुत शब्द और भाव लिए हुए है आपकी रचना...

    नीरज

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  6. सपना जैसा ही है कुछ-जैसा सिद्धार्थ जी कह रहे हैं ?

    अभिव्यक्ति प्रभावी रहती ही है । अदभुत ।

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  7. प्रभावी अभिव्यक्ति ..... TAAP KA ASAR YA SATY KO DEKHNA ... YA BAS BADBADAANA ...

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  8. आपके शब्दों-जाल में पाठक फँसता ही चला जाता है....
    बेशक जाल सहज है... पर निकलना कठिन !!

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  9. आपके शब्द - जाल में पाठक फँसता ही चला जाता है....
    बेशक जाल सहज है... पर निकलना कठिन !!

    कृपया 'शब्दों' को 'शब्द' पढिये...
    क्षमा कीजियेगा...

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  10. अजीब संकट है
    स्नेहिल स्त्री का पति होना।

    बेहतरीन...शब्द्फांस में तो फंस गए अपन तो...

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  11. सपने में ऐसी बातें दिखाती हैं तो इंसान बडबडाता है :) बड़ी तेजी से बेचैन हो कविता पढ़ी मैंने...

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  12. पढा !
    जरूरी नही की जो लिखा जाय वह दूसरो को समझ में आ ही जाय ! कट्टर सैद्धान्तिकता ओढ़ते हुए
    अर्थविज्ञान (semantics) के दृष्टीकोण से कहा जाय तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रत्येक शब्द का अर्थ बहुत ज्यादा भिन्न होता है !तब कोई दूसरा किसी दूसरे का लिखा हुया कैसे समझ सकता है ? सारी म्युचुअल इन्टेलिजिबिलिटि का आधार बस कुछ प्रतीयमान सत्य ही तो है !
    कविता अच्छी है !

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