मंगलवार, 3 नवंबर 2009

...होनी चाहिए


तुम आओ, न आओ घर हमारे - हम तो हर पल अगोरेंगे                  
बची तुम्हारे जेहन में, हमारी यादों की सौगात होनी चाहिए।


न आई तुम, पूछा किए भोर से, उषा से, चमकते आफताब से
शाम रुसवा हुई, खत से जाना कि मिलन की रात होनी चाहिए।


धौकनी बन गई साँसें, आँच निकले है जैसे गरम रोटी से
बुझा चूल्हा, कहीं किनारे अँसुअन भरी परात होनी चाहिए।  


बाहर मची है अन्धेरगर्दी, न कोसो आइने से मुखातिब हो
पहले गली में, नुक्कड़ पर, निकलने की औकात होनी चाहिए।


देखा है सुना है, मचल जाते हैं तुम्हारे असआर बाहर आने को
हवा में उछालने से पहले, जुमले की मालूमात होनी चाहिए।


वजह जगह भले अलहदा, सड़क पर हो राशन की लाइन में हो
कहीं भी कैसे भी हो, जरूरी है मेरे दोस्त, बात होनी चाहिए।

10 टिप्‍पणियां:

  1. धौकनी बन गई साँसें, आँच निकले है जैसे गरम रोटी से
    बुझा चूल्हा, कहीं किनारे अँसुअन भरी परात होनी चाहिए।

    बहुत सुन्दर, लाजवाब भाव

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  2. बहुत गजब..सच कहूं तो इससे कम की अपेक्षा भी नहीं रहती ..आपसे..पहले ही अनुमान लगा के आते हैं कि सब अद्भुत मिलेगा..और अनुमान ..यकीन में बदल जाता है..
    एक लंठ के लिये ही मुमकिन है..ऐसे रचना...

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  3. दुष्यंत कुमार की याद आई शायद 'चाहिए ' को लेकर. पढ़ते गया तो आखिर की लाईने ज्यादा पसंद आती गयी. एक बारगी लगा की इसी तरह का ग्रेडीएंट है... पर पलट कर उपर की लाइन पढ़ी तो ये भ्रम जाता रहा.
    'पहले गली में, नुक्कड़ पर, निकलने की औकात होनी चाहिए' ये लाइन तो गजबे दमदार है.

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  4. 11:18 PM me: kya baat hai, kya zazbat hai... hum daurte chale aate ..shukra manaiye ki abhi raat hai. ..kahiye kaise rahi :-)
    11:19 PM गिरिजेश: kya baat hai, kya zazbat hai...
    11:20 PM me: gazalto ho gaye lekh kahan hai
    11:21 PM गिरिजेश: गहरी हो चली रात है। कल के दिन अपन अवतार लिए थे। the time has come सुबह पढ़िएगा। मैं लिखते रो पड़ा था।
    11:23 PM हालाँकि कोई कारण नहीं था..बस यूँ ही।
    11:24 PM me: Tabhi doob kuch jyada nam thi... palken bheegi lekin kam thi ...zazbaat ka koi karan nahi hota ....fir bhi hoga zaroor kuch koi u hi nahi rota
    11:25 PM maharaj ab edition ka pressure hai
    गिरिजेश: वाह ! क्या कहने! शुभ रात्रि
    11:26 PM me: Good night

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  5. अगोरेंगे -क्या बताऊँ ...यह एक शब्द जाने कहाँ ले गया मुझे...बचपन तक...दादी के पास...आह!!

    गजब भाई!!

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  6. वजह जगह भले अलहदा, सड़क पर हो राशन की लाइन में हो
    कहीं भी कैसे भी हो, जरूरी है मेरे दोस्त, बात होनी चाहिए।

    यह डायरी से नहीं नव सृजित है, बधाई ! अलग अलग तासीर की फुल्झडियां हैं ये ! कहीं आग और कहीं धुआ केवल !

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  7. पहली दो लाइन हमको ही लिखा है काऽ भईया !
    ई तऽ पुरनकी डायरी का नाहीं लगत है ।

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  8. का हो भैया!
    ई फ्लेवरवा कहंवा से लाये रहें.......


    बहुते 'नीक' है.......

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  9. अरविंद मिश्र जी का शुक्रगुजार हूँ कि आपका पता मिला...खूब पढ़ना चाहता हूँ आपको अब इस गज़लनुमा कविता को पढ़ लेने के बाद!

    कुछ मिस्‍रे तो जबरदस्त बुने गये हैं!

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