किसानों के लिये उनके खेत परिवार के सदस्यों की तरह होते हैं और फसलें संतान सी। लिहाजा उनके आपसी व्यवहार भी उसी तरह से होते हैं। किसानी जीवन की इसी रागात्मकता को प्रख्यात गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र का यह गीत अभिव्यक्त करता है। इसे श्री ललित कुमार ने भेजा।
एक बच्चा दुधमुँहा, किलकारियाँ भरता हुआ,
आ लिपट जाता हमारे पाँव में।
धान जब भी फूटता है गाँव में॥
नाप आती छागलों से ताल पोखर सुआपाखी मेंड़
एक बिटिया सी किरण है रोप देती चाँदनी का पेंड़
काटते कीचड़ सने तन का बुढ़ापा, हम थके हारे उसी की छाँव में।
धान जब भी फूटता है गाँव में॥
धान खेतों में हमें मिलती सुखद नवजात शिशु की गन्ध
ऊँख जैसी यह गृहस्ती गाँठ का रस बाँटती निर्बन्ध
यह ग़रीबी और जाँगरतोड़ मेहनत, हाथ दो, सौ छेद जैसे नाव में।
धान जब भी फूटता है गाँव में॥
फैल जाती है सिंघाड़े की लतर सी, पीर मन की छेकती है द्वार
तोड़ते किस तरह मौसम के थपेड़े, जानती कमला नदी की धार
लहलहाती नहीं फसलें बतकही से, कह रहे हैं लोग गाँव गिराँव में।
धान जब भी फूटता है गाँव में॥
लाजवाब रचना, बेजोड़ प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंठीक है! सुन्दर प्रयास है! पर देसज संवेदना पर लिखी पद्य रचना लोकभाषा में ही सुवासित हो पाती है, गला-कारी की भी सीमा होती है.
जवाब देंहटाएंअमरेन्दर भाई,
जवाब देंहटाएंअगिला गीत अमवा महुअवा के डोले पतिया सींकड़ में आई। ललित बाबू से बात चीति होतिया। बहुत जबरजस्त मनई हउवें। लहि जाई त दसहरा के बादि से ए बलगवा पर भोजपुरिया लहराई :)
बहुत नीक...
जवाब देंहटाएंएक चटका लगा रहा हूँ- "सुन्दर प्रयास है! पर देसज संवेदना पर लिखी पद्य रचना लोकभाषा में ही सुवासित हो पाती है।"
जवाब देंहटाएंगजब की ग्राम्यता
जवाब देंहटाएंप्रवाहमयी भाव लहरी।
जवाब देंहटाएंसुबह ही पढ़ा था, दुबारा पढ़ कर फिर आनंद उठा रहा हूं।
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर!
जवाब देंहटाएंआप जो दे देते हैं, उसके लिए कोई धन्यवाद पर्याप्त नहीं है।
जवाब देंहटाएंदिनों बाद आया हूँ, पुलक रहा हूँ अभी तो।