सोमवार, 29 नवंबर 2010

!

मित्र! 
तरुगन्ध आह्वान 
ओस भीगे पत्ते
नंगे पाँव
लुप्त चरम चुर
ढूँढ़ें 
गन्ध स्रोत

पुन: बालपन
वारि नासिका
शीतल मलयानिल
घास पुहुप चुन 
सूँघे 
छींके 
छूटे कुछ हाथ
सगुन सा 
कौन आए 

ममता छूटी
घर पर 
सुर सुर
माताएँ 
खीझ 
रीझ
आयु
स्सब भूलीं 
याद दिलाएँ

लोट पोट 
श्वान शिशु 
दुलार 
डाँट फटकार 
पिता प्यार 
लुटाएँ
बीत गई 
रीत गईं 
धुँधली आखें 
मनुहार
मनाएँ 

मित्र! 
तरुगन्ध आह्वान 
झूलें 
समय झूलना 
डार डार 
पात पात 
जीवन 
ओल्हा पाती 
पात पात 
हिल जाएँ 
खिल जाएँ 
चलो ! 

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

डीहवारा की उपलब्धि से आगे...


डीहवारा की उपलब्धि से आगे ... 


नहीं रे! उपलब्धि की नहीं चाह मुझे
प्रेमतापस हूँ, भटकता रहा युगों से
उसे ढूँढ़ता जो मेरे जैसा हो और 
जिससे मैं अपनी बात कह सकूँ। 

तुम्हें देखा तो लगा जैसे सब पाया
चोट छील नहीं, वे सिर्फ मेरी बाते हैं 
जो मैंने की हैं - तुमसे जो अपने लगे।

तुम गढ़ा गए,उकेरा गए उन बातों से 
तो ज़रा पूछो अपने प्रस्तर अंत: से
प्रेमिका जो अब सामने आई है 
क्या वही नहीं जिसे तुमने चाहा था? 
जिसे सँजोए रखा इतने दिनों से 
आंधियां सहते
तूफान तोड़ते
मेघ रीते 
घाम जलते 
चन्द्र रमते! 

तुम्हारा तप सफल हुआ 
जैसे मुझ तापस का। 
जन्मों के पुण्यकर्म फलते हैं 
तब मिलते हैं दीवाने दो
तब दिखता है ऐसा कुछ। 

उत्सव मनाओ - 
तप नष्ट नहीं, यह सिद्धि है
हमारी उपलब्धि है,
जो मिल गई अनायास -   
प्रेम में ऐसे ही तो होता है।
नहीं, ऐसा लगता है
भटकते युग याद कहाँ रहते हैं! 

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मौन कौन?

कवियों के गीत 
प्रियतम रूप। 
सराहोगी? 
मेरा मौन! 

धरा ने बुलाया
और सिमट गई।
पुकार पुकार 
थका आसमान
फिर बरस पड़ा। 
बोल सकता हूँ,
बरस नहीं सकता।
तुम कम से कम 
पूछ तो लेना - 
आया कौन?

काँच की खिड़कियाँ 
अब एकतरफा हैं
तुम आर पार देख सको 
मैं नहीं।
क्यों गीत गाऊँ? 
मैं स्वयं तो मधुर 
पर तुम्हारे लिए 
बस हिलते होठ 
मौन।

रेस्ट्रॉं में रश है 
कशमकश है। 
जिस टेबल पर 
तनहाई है
रात घिर आई है।
सर सर छुवन 
चटकी है अगन 
कपड़ों में।
बैठने पर 
न पूछा करो मुझसे -  
सिंथेटिक कौन? 

वह खिलखिल 
वह अदा 
हँसना बेबात 
सुबकना  
बिना बात। 
चुप रहा बहुत 
जब बोलने लगूँ 
वैसी ही रहना।
न न्यौतना - 
मौन।

रविवार, 21 नवंबर 2010

बात अकेली सी

बहुत हुए गुनाह बेखुदी में,अब क़यामत का आगाज़ हो
पढें अपनी अपनी हम तुम,जब शर्मनाक कोई बात हो।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

पूजा

दीवार पर कील से टँगे भगवान 
ठीक नीचे खूँटी पर टँगा पसीना
धूप अगरबत्ती? 
नहीं रे, पूजा तो हो गई!
रोटी ठंडी हो रही है,
प्रसाद पा ले। 

रविवार, 14 नवंबर 2010

तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ? - 1

तुम जो आज आई हो
इस घर की देहरी लाँघ
वह देहरी जो ऊँची थी, बहुत ऊँची,
हमारे प्रेम से भी –
आज तुम्हारे स्वागत में झुकी है
ऐसी कि सगुन साटिका से अनुशासित
तुम्हारे रुन झुन कदम भी उसे लाँघने में सक्षम हैं।  
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ?

कलंकिनी नहीं तुम अब, लक्ष्मी हो
जिसके संतति धन से
परम्परा के ब्याज चुकाए जाएँगे
और मूल मन में रह जाएँगे
चमकते सिक्कों से कुछ ऐसे धन –
छिप कर मिलना
हताश होना
साथ साथ मरने की कसमें
पिताओं के क्रोध
माताओं की घृणाएँ
ममता की बलाएँ
जमाने की थू थू।
अब जब कि धन धन में
सब धन्य हैं
तुम्हारे ऊपर कौन धन वारूँ?
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ?  

तुम्हारे कदम जमीन पर न पड़ें
इसलिए माँ ने डलियाँ बिछाई हैं
दस्तूर नहीं, सचमुच हरसाई हैं।
मुक्त चलो मेरी प्रियतम!
भू से आँसुओं की कीच अब सूख चुकी है
हम मिल गए हैं
और कोई अनर्थ नहीं हुआ!  
नक्षत्र वही हैं
सुबह शाम वैसी ही होती हैं
बच्चे अब भी स्कूल जा रहे हैं
दो और तीन अभी भी पाँच हैं
सूरज चाँद अभी भी चमकते हैं
और  
चाँदनी सुहाग कक्ष की छत को भी नहलाएगी
ठीक वैसे ही जैसे पापी आलिंगन को नहलाती थी।
तो बताओ
इस संस्कार स्नान के बाद
तुम्हारा स्वागत मैं कैसे करूँ? (जारी)


चित्राभार: http://media.photobucket.com

शनिवार, 13 नवंबर 2010

बैठो मेरे पास



बैठो मेरे पास कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं,

गर पूछोगे तफसील तो कह दूँगा - मुझे कुछ नहीं पता।


बुधवार, 10 नवंबर 2010

तब तक प्रतीक्षा करो न!

तुम्हारे पत्र दिन में नहीं पढ़ता 
उजाले में आँखें चौंधियाती हैं 
और सूरजमुखी ऐंठने लगते हैं। 

तुम्हारे पत्र रात में नहीं पढ़ता 
रजनीगन्धा सी महक उठती है
यादों के साँप बाहर आने लगते हैं।

सच कहूँ तो आज तक उन्हें खोला बस है। 
'मेरे प्रियतम' और 'तुम्हारी तुम ही' 
पढ़ कर बन्द कर दिया है। 

बीच के अनपढ़े कोरेपन ने 
जाने कितनी ही कवितायें रचाई हैं। 
कहोगी तो पढ़ लूँगा -
जब दिन नहीं होगा
जब सूरजमुखी फूल नहीं खिलेंगे। 
जब रात नहीं होगी 
जब रातरानी नहीं फूलेगी।
जब 
साँप विलुप्त प्रजाति हो जाएँगे। 

तब तक प्रतीक्षा करो न! 
उत्तर तो देता हूँ न!
तुम भी नहीं पढ़ पाती हो क्या? 

रविवार, 7 नवंबर 2010

न सुर न ताल, बस मुक्तक

न सूर्य रचे न चन्द्र रचे 
रजनी के श्यामल वस्त्रों पर, उल्का के पैबन्द रचे ॥3/4॥
शब्द नहीं न अर्थ सही, अलंकार की कौन कहे
रोज रोज के घावों को, कविता में हम खूब सहे ॥1॥
आग जल रही हवन हो रहा, न देव दिखें न लेव दिखें
सामधुनों में रोदन उभरा, आँखें मलते उद्गीथ दिखे ॥2॥
हूँ हारा मन का मारा, पर साँसों में संगीत सजे
मज़दूरी के सिक्कों में जब, बाल हँसी की झाल बजे ॥3॥
आह तुम्हारा वाह तुम्हारा, हम मौनी मनमीत भले
कंठ भरे तब आ जाना, चुपचाप ढलेंगे साँझ तले ॥4॥
द्वार हमारे भीर जुटी है, टुकड़े टुकड़े शववस्त्र मिले
जीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले ॥5॥    
     

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

आत्मदीपो भव

आत्मदीपो भव!
अप्प दीपो भव!
अपने प्रकाश स्वयं बनो। 
अपनी रोशनी तुम्हें खुद तलाशनी होगी। 
Be your own torch bearer. 

चाहे जैसे कहो, लब्बो लुआब ये कि करना खुद को ही है। 
तो आज दिया बन कितना जलने का प्रोग्राम है? 

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

आज के दिन कोई रोता है भला?

जल ले मन दीपक सुघर, बाती नहीं न तेल सजल, जल ले मन अँजोर जोर। 
कब था सब शुभ धवल, कब थे नहीं काले जलद, न बुझ, जल मन मनजोर।
गोधूलि होंगी राहें विकल, चाह होगी पर धीर बरज, लहक टपकी आँख कोर।
जल ले मन अँजोर जोर मनजोर टपकी आँख कोर।

भूख बैठी डार पर 
घुघ्घू चले शृंगार पर 
लक्ष्मी लुटे लौंजार पर। 
क्या हुआ जो छ्न्द टूटे 
क्या हुआ जो बन्द फूटे 
तुम जमे रहो जेवनार पर 
शान पट्टी मार कर। 

खाँसता जो गीत किसका मीत
निचोड़ ले हर बूँद ऐसी प्रीत 
यह जीना चबेना माल पर 
जो मैल बदबू हर साँस पर 
चढ़ गई ज़िन्दगी शान पर 
तुम जमे रहो जेवनार पर 
टँगे रहो निस्तार पर। 

करूँ क्या मौसम तो आएँगे ही, हँस लूँ, एक दिन फुलझड़ी छोड़ लूँ 
आरती सजा पूज लूँ उल्लुओं की मात को।
हाँ रहेंगे हमेशा मैल बदबू 
खाँसते गीत होंगे शान पट्टी निस्तार पर 
नाचता दलिद्दर होगा हमारी ताल पर 
साल भर, 
दीपावली तो फिर भी आएगी ही 
मना लूँ।
न कहो
जल ले मन अँजोर जोर मनजोर टपकी आँख कोर।
आज के दिन कोई रोता है भला?