न सूर्य रचे न चन्द्र रचे
रजनी के श्यामल वस्त्रों पर, उल्का के पैबन्द रचे ॥3/4॥
शब्द नहीं न अर्थ सही, अलंकार की कौन कहे
रोज रोज के घावों को, कविता में हम खूब सहे ॥1॥
आग जल रही हवन हो रहा, न देव दिखें न लेव दिखें
सामधुनों में रोदन उभरा, आँखें मलते उद्गीथ दिखे ॥2॥
हूँ हारा मन का मारा, पर साँसों में संगीत सजे
मज़दूरी के सिक्कों में जब, बाल हँसी की झाल बजे ॥3॥
आह तुम्हारा वाह तुम्हारा, हम मौनी मनमीत भले
कंठ भरे तब आ जाना, चुपचाप ढलेंगे साँझ तले ॥4॥
द्वार हमारे भीर जुटी है, टुकड़े टुकड़े शववस्त्र मिले
जीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले ॥5॥
pankti pankti ati sundar
जवाब देंहटाएं"आग जल रही हवन हो रहा, न देव दिखें न लेव दिखे" सुन्दर कविता.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना।
जवाब देंहटाएंगजब...।
जवाब देंहटाएंजीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले
जवाब देंहटाएंछू गयीं ये पंक्तियाँ।
न देव दिखें न लेव दिखें...
जवाब देंहटाएंआँखें मलते उद्गीथ दिखे...
बेहतर...
जीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले
जवाब देंहटाएंhmmmm....
जीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले -क्या बात है.
जवाब देंहटाएंbahut sundar rachna...
जवाब देंहटाएंजीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले -
sundar line.
सुर भी हैं और ताल भी है, छंद भी है और बिम्ब भी है। बहुत ही श्रेष्ठ हैं आपके छंद से बंधे मुक्तक।
जवाब देंहटाएंबहुत उमदा मुक्तक। बधाई।
जवाब देंहटाएंउद्गीथ-मतलब ?
जवाब देंहटाएंउद्गीथ का अर्थ ईश्वर के प्रतीक प्रणव से है। इसका एक और अर्थ सामगायन होता है
जवाब देंहटाएं'देव' के भाई 'लेव'!!!
जवाब देंहटाएंगज़ब.
एक शेर सुनें--
मुझको यकीन है कि हैं हम सब में देवता
आदम की ज़ात ऐसी बेगैरत नहीं होती.