शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

डॉन के साए में कविता. .


घर के सामने पसरी तरई भर धूप 
निहाल रहती है - 
बैठते हैं एक वृद्ध उसकी छाँव में 
आज कल।
मैं सोचता हूँ -
कितनी उदास रही होगी 
अकेली उपेक्षित धूप अब के पहले तक !

कल मैंने सुना घर को 
सामने के पार्क से बतियाते
देखो, कौन आया है ! 
मैं समृद्ध हूँ 
अतिरिक्त 
आज कल मेरी दो साल पुरानी दीवारें
घेरे रहती हैं - पचहत्तर वर्षों की समय सम्पदा।


मैं द्रष्टा और अनुकरणशील हूँ 
मुझ डिक्टेटर पर छा गया है अनुशासन - 
डॉन आए हैं। 
पिताजी आए हैं, आज कल।


घर के घेरे का सीमित यंत्रवत सा दैनन्दिन 
प्राण धन पा उचक उछल दौड़ गया है - 
बाहर । 
मैं देख रहा हूँ
घर को घेरे हुए हैं
स्नेह की रश्मियाँ
जैसे माँ के आँचल में सोया शिशु 
धीमे धीमे मुस्कुरा रहा है।
मैं अपना ही साक्षी हो गया हूँ। 


आज कल मैं 'बाबू' हो गया हूँ - 
ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं !

24 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविता...... सार्थक और सुंदर.......

    शीर्षक देख कर डर गया था.....
    (शाहरुख़ खान और अमिताभ बच्चन दोनों याद गए थे.....)


    :)

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  2. किसी भी बात को कविता का आवरण और आभरण देने में आप को
    सिद्धि हासिल है .. ऐसी घटनाएँ हमारे आसपास घट रहीं है परन्तु उन्हें
    काव्य की परिधि में लाना आपके संवेदनशील काव्य मानस का परिचय
    करती है .. वृद्ध और बचपने का सहज सम्बन्ध उजागर किया .. बिना
    '' बाबू'' बने ऐसी संवेदना नहीं आती ..
    ............................ आभार ... ...

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  3. ज़बरदस्‍त प्रयोगधर्मी शीर्षक और विरल संवेदना की कविता.पिता के प्रति कातर भाव से ये कृतज्ञता हमेशा बनी रहे.

    पिता भी सोच रहे होंगे घर बढिया बना लिए बाबू!

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  4. सच में बुजुर्गों साया एक आश्‍वासन , एक प्रशांति की तरह होता है ।
    ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं !

    हर बार समृद्ध कर जाती है आपकी कविता ।

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  5. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति मिली है अनुभूतियों को।

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  6. हमारे घर भी जब जब डॉन आयें है...सहज स्नेह और आशीर्वाद का वो लौह किला अपने चारों ओर पाया कि अनायास ही सबकुछ सुरक्षित हो गया..
    ये डॉन भी सचमुच कितने डॉन होते हैं...!!:)

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  7. आज कल मैं 'बाबू' हो गया हूँ -
    ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं !

    कितना सही कहा...बहुत शानदार कविता है जी!!

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  8. वाह रे अनुभूति - "कितनी उदास रही होगी/अकेली उपेक्षित धूप अब के पहले ।"
    शुरु में "तरई भर धूप"
    अंत में - "आजकल मैं ’बाबू” हो गया हूँ"- निहाल हुआ । शब्दो की सामर्थ्य देख रहा हूँ ।
    अमरेन्द्र भाई की टिप्पणी ही कहना चाह रहा था - कह नहीं पाया था अब तक - "किसी भी बात को कविता का आवरण और आभरण देने में आप को सिद्धि हासिल है .. "

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  9. आंखे नाम हो गयी हैं ...पिता का डॉन होना कितना सुखद होता है ना...उनके अनुशासन में बचपन फिर से जीवित हो उठता है ...11 वर्ष हो गए इस को महसूस किये ...

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  10. आज कल मैं 'बाबू' हो गया हूँ -
    ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं !
    बहुत सुन्दर। आँवले का स्वाद पहले कडवा ही लगता है मगर उसका असर बाद मे बाद मे ही पता चलता है। शुभकामनायें

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  11. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...सच पहले धूप कितनी अकेली और उपेक्षित रही होगी..

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  12. आज कल मैं 'बाबू' हो गया हूँ -
    ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं !

    कितना कुछ कह जाती है आपकी रचना ........ बचपन से गुज़रते हुवे उम्र के उस पड़ाव तक आने का सफ़र .... जहाँ खुद में खुद को पाता है इंसान ....... बहुत विशिष्ट है आपकी रचना .....

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  13. मैं समृद्ध हूँ
    अतिरिक्त
    आज कल मेरी दो साल पुरानी दीवारें
    घेरे रहती हैं - पचहत्तर वर्षों की समय सम्पदा।

    मैं द्रष्टा और अनुकरणशील हूँ
    मुझ डिक्टेटर पर छा गया है अनुशासन -
    डॉन आए हैं।
    पिताजी आए हैं, आज कल।


    ये Don नहीं Dawn हैं ठाकुर! ["तमसो माँ ज्योतिर्गमय" वाले]
    आनंद आ गया! यूं ही लिखते रहो. Don को हमारा प्रणाम और बाबू को आशीर्वाद पहुंचे. उन्हें बाऊ-पुराण पढ़ाया की नहीं? यदि हाँ तो उनकी क्या प्रतिक्रया रही?

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  14. पिता का रहना पुत्र के लिए सदा आश्वस्तिदायक है और न होना अनाथ सा बना देना है -मुझ जैसा !आँखे नाम हो आयीं गिरिजेश जी !

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  15. बाबू कहने वाली आवाज़ हमेशा गूँजती रहे आपकी दो साल पुरानी दीवारों के बीच, यही कामना है.

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  16. मैं सोचता हूँ -
    कितनी उदास रही होगी
    अकेली उपेक्षित धूप अब के पहले तक !

    अद्वितीय आलसी भाई...

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  17. DON के आगे अच्छे अच्छे हिटलर काँपते हैं ।

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  18. बाबूजी को प्रणाम पंहुचे... बाकी तो आप कह ही गए हैं.

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  19. धूप की छाँव में बैठे पिता...

    कुछ नहीं है कहने के लिये।

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  20. वहाँ माँ के दुब्बर-अब्बर पे मुस्कुराते हुये पिता के "डानशिप" को देखने आ गया।

    आह, ये "बाबू" की पुकार...

    सिर्फ "एक अच्छी कविता" कह कर चल दूँ तो चलेगा? क्योंकि कुछ ज्यादा ही "सेंटी" हो गया हूँ...सहरासा फोन करना है बाबूजी को।

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  21. "मैं सोचता हूँ -
    कितनी उदास रही होगी
    अकेली उपेक्षित धूप अब के पहले तक !"

    क्या बात कही जनाब ने..वाह..!

    "आज कल मैं 'बाबू' हो गया हूँ -
    ये वृद्ध भी कितनी बचपना जगा देते हैं ! "

    कभी-कभी सोचता हूँ, ये पापाजी लोग कभी समझते होंगे कि हम बच्चे भी उन्हें कितना प्यार करते हैं..? हर छोटी-बड़ी बात, हर लम्हे-एहसास संजो कर हम भी रख पाते हैं ठीक उन्हीं की तरह...!

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