टूटें छन्द बन्ध
मुक्त भाव
अक्षर सम्बन्ध
बस निबह जाय।
बात हो जाय
कह लें सुन लें
और मन बह ले।
...
व्याकरण पहेरू
बाहर ही ठीक।
घरनी कविता
डपट दे पहेरू को
इतनी तेजस्विनी
मानवती तो हो !
_____________________________
मुक्त भाव
अक्षर सम्बन्ध
बस निबह जाय।
बात हो जाय
कह लें सुन लें
और मन बह ले।
...
व्याकरण पहेरू
बाहर ही ठीक।
घरनी कविता
डपट दे पहेरू को
इतनी तेजस्विनी
मानवती तो हो !
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छ्न्द मानव जाति के जीवन से ही आते हैं। मुझे सॉनेट लिखने को कहो तो बगले झाँकने लगूँ, दोहा या घनाक्षरी कहो तो शायद कर जाऊँ। बहुतेरे ऐसे हैं कि वह भी न कर पाएँ लेकिन मन की बात कह सकें और आप को द्रवित कर सकें, सोचने पर मजबूर कर सकें या नाचने, वाह वाह करने को उकसा सकें तो कवि हैं ...
ग़जल मुझे नहीं आती। कोई छन्द नहीं आते। मैं लय को थोड़ा समझता हूँ। बस। अब आप व्याकरण सम्मत रचना चाहते हैं तो पहेरू का गुलाम बनना पड़ेगा। अब आप के उपर है - स्वामी रहना चाहते हैं, कविता को स्वामिनी बनाना चाहते हैं कि पहेरू के हाथ घर की चाभी देना चाहते हैं ! ..
मुक्त रचिए - गजलगोई का शौक है तो उसकी लय में रचिए। बस लय पर दृष्टि रखिए, जिस दिन सध गई उस दिन बल्ले बल्ले... आहा चिकनाक चिकनाक... लोग झूमेंगे नाचेंगे और रोएँगे सोचेंगे.. कोई यह पूछने नहीं आएगा कि बहर किस शहर गया या इसमें का मतला ठिगना है..
अपने तो दो शब्दों मे चिन्तामुक्त कर दिया। नहीं तो गज़ल के बारे मे सोच सोच कर दुबली हो रही थी {वैसे हुई नहीं} बहुत सुन्दर रचना है धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कह रहे हैं आप..... बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट....
जवाब देंहटाएंचलिए आप छूट दे रहे हैं तो कुछ आजमाता हूँ।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता. अच्छे वि़चार।
यह किसी ख़ास के लिए है क्या ?
जवाब देंहटाएं@ अरविन्द जी
जवाब देंहटाएंमहफूज अली की पहली ग़जल पर की गई टिप्पणी का यह अंश है। मुझे लगा कि इसे पोस्ट करना चाहिए।
अरविन्दजी के सवाल पर दिए गए आपके जवाब से सवाल ख़त्म नहीं हुआ ...:)...
जवाब देंहटाएंव्याकरण पहेरू बाहर ही ठीक।
घरनी कविता डपट दे पहेरू को
इतनी तेजस्विनी मानवती तो हो !
ह्म्म्म....मतलब बेबहर ग़ज़ल को भी सराहा जा सकता है ...लयहीन कविता को भी ...
फिर तो हम बेफ़करी से कविता और ग़ज़ल लिख सकते हैं ...आभार ...!!
हाँ ...हाँ..काहे नहीं...महफूज़ मियाँ के तो पोस्ट भर टिपण्णी....और हमरा 'वाह' 'आह' 'छि' 'दुर' कुछो नहीं....
जवाब देंहटाएंअरे ..और कुछो नहीं तो इ कहे में का जात है...'हम आये और अब चले' ...हाँ नहीं तो...
छंद बंद, अलंकार सब पल्ला झाड़ के चल देवत हैं, व्याकरण मुंह बिसूरे बैठी है और बहर बाहर से भीतर आवे का ना न लेवे...तैयो कविता, ग़ज़ल, नज़्म ठेल देवत हैं...पढना है पढ़ो नहीं तो हमरे ठेंगे से....!!!
क्या बात है..बहुत खूबसूरत..लिखते रहें।
जवाब देंहटाएंखुद के लिए कबर खोदने से कम न होगा
माँ
औरत का दर्द-ए-बयां
कैमरॉन की हसीं दुनिया 'अवतार'
शौचालय और बेसुध मैं
अहिंसा का सही अर्थ
"हैप्पी अभिनंदन" में राजीव तनेजा
सही कहा बन्धु! छंद का बंध विचारों को बाँध सकता होता तो कविता भी रूखे आर्किटेक्चर का नमूना भर होती. कवियों की IIT होती और विश्व की सर्वश्रेष्ठ कविता का पुरस्कार एइफेल टॉवर जैसे किसी लोहे के ढाँचे को मिलता.
जवाब देंहटाएंकाफी हौसला मिला. :)
जवाब देंहटाएंयदि कवि देवर हो तो ..घरनी कविता के लिए तो ...पहेरु आलोचक का अनुशासन तो..चुभेगा ही..पर इसे अवैध कहेंगे या उसे..!
जवाब देंहटाएंपर ये कविता अपने शब्दों के मानिंद बेहतरीन बन पड़ी है...सुंदरतम..!
राव साहब इस महीने तो गज़ब प्रयोग किए आपने...आपकी प्रयोगशाला से एक परखनली उधार चाहिए...!
नए वर्ष मे दे दीजिये ना...!
राव साहेब !
जवाब देंहटाएंइसका तो मतलब जानने में कहीं
उमरिया न निकल जाय ---
'' व्याकरण पहेरू
बाहर ही ठीक।
घरनी कविता
डपट दे पहेरू को
इतनी तेजस्विनी
मानवती तो हो ! ''
कविता ने मुझे तनिक टीस दी ! क्या कह गये भईया !
जवाब देंहटाएंई जल्दी-जल्दी टापक-टईयाँ !
@"टूटें छन्द बन्ध
मुक्त भाव
अक्षर सम्बन्ध
बस निबह जाय।" - ये चार लाइन में दो विपरीत बातें ! काहें !
"टूटें छन्द बन्ध" का आत्मविश्वास और फिर
"बस निबह जाय" का टूटपुँजिहा वक्तव्य !
गलत जगह दबाव तो नहीं दे दिया ?
'बस निबह जाय' का प्रयोग - छन्दों के उपर कविता की निर्भरता को इतनी जोर से नकारना है कि उसकी गूँज अक्षरों तक पहुँचे। मतलब कि अक्षरों तक से भी बस निबाह तक रिश्ता रखना है, छ्न्दों की औकात ही क्या! .. कोयल के गीत में कौन से अक्षर होते हैं? कौन से छन्द?
जवाब देंहटाएंबच्चे की तुलतुलाहट में अक्षर तो बस ऐसे ही रहते हैं।
पछाड़ खा विलाप करता मनुष्य किस बहरोवजन का प्रयोग करता है?
..लेकिन ये सभी आप की सम्वेदना को झंकृत करते हैं।
शिल्प, मात्रा, विधि विधान के दबावों वाली कविता सीमित हो जाती है। सभी तुलसी निराला नहीं हो सकते, इसका मतलब ये तो नहीं कि कविताई नहीं कर सकते !
व्यक्तिश: मैं लय को कविता का प्राण मानता हूँ। वह रहे फिर चाहे मात्राएँ इधर हों या उधर , फर्क नहीं पड़ता..
वैसे अमरेन्द्र, श्रीश और आप की निर्भय निष्ठुर प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हूँ। हिन्दी ब्लॉगरी को लल्लो चप्पो से बाहर आना ही चाहिए।
...मास्साबों, हम साहित्य के नहीं अभियांत्रिकी के विद्यार्थी रहे हैं। आप लोग मुझसे इतनी उम्मीद क्यों रखते हैं?
प्रशंसक होना, प्रेमी होना या फैन होना ठीक है लेकिन पूज्यों! मुझ गरीब से इतनी समृद्धि की उम्मीद तो न रखें।
इतना जरूर है कि ईमानदारी से कोशिश करता रहूँगा। आप लोगों की दृष्टि बनी रहेगी तो निखरता भी जाऊँगा फिलहाल तो निर्माण की प्रक्रिया में हूँ।
राव साहेब !
जवाब देंहटाएंआप ऐसा काहे कह रहे हैं ..
हम तौ आपके ऋणी हैं ...
http://geetchaturvedi.blogspot.com/2009/12/blog-post_14.html
जवाब देंहटाएंऔर
http://anunaad.blogspot.com/2009/12/blog-post_27.html
....आपकी पारखी नजर इधर भी चाहूंगा सर! शेष आपकी ये टिप्पणी महफ़ूज अली की उस तथा-कथित ग़ज़ल पर पहले ही देख चुका था मैं। किशोर जी ने जो लिंक जो मेरे पोस्ट पर था कृपया उधर भी नजर डालियेगा।
आपही के विचारों का समर्थक हूं मैं भी। लेकिन वो कमबख्त लय है कहां आज की इन छंद-मुक्त कविता में।
इस ब्लौग पर आप रेगुलर हैं क्या? तो बार-बार आना चाहूंगा।