देखो
बोगनबेल फूली
लखनबूटी शरमाई
शीत ऋतु आई।
रसिक ओस लिपटी
मंजरी हरसाई
तुलसी के बिरवा
सँवर ऋतु आई।
प्रात अलसाई
घड़ी को भुलाने
ओढ़ी रजाई।
धुन्ध नज़रबन्द
टोनहिन ठिठुराई
दुनिया भरमाई।
भीतर है सुरसुर
बाहर हवा सिसकाई।
चिपट बैठो रिक्शे
ताके है
झाँके है
दरम्याँ ये दूरी
ठंडी पछुवाई।
शीत ऋतु आई।
kavita to sunder hai per tile kyun aisa chuna ji ?
जवाब देंहटाएं" sheet Ritu aayee / thithurayee " hee bhee jancha ..........
Phoolon ke sath , poora drishya , spasht hua
Badhayee jee
आज प्रात: छह बजे जाग गया हूँ और यही अनुभव कर रहा हूँ जो इस कविता में वर्णित है , अद्भुत दृष्य संयोजन है और मनुष्य व प्रकृति के रागात्मक सम्बन्धों को बिम्बों में प्रस्तुत करने का यह सुन्दर प्रयास है
जवाब देंहटाएंआपकी कविताओं के लिए मेरे पास कहने को बस एक ही शब्द होता है.....
जवाब देंहटाएं'ग़ज़ब'
सिकुड़े है देह औ सिमटी अंगनाई
कोना मा बैठ के अलाव तपाई
ठिठुरन जे लागे अब कम्बल रजाई
अगे मइया इ शीत ऋतु आई
तो यूँ आयी शीत ऋतु..राव साहब आप तो सबसे बतिया लेते हैं..क्या आदमी क्या पौधे..कवि की ताकत यही तो है...शिल्प जीरो फिगर लिए हुए है..:)
जवाब देंहटाएंउम्दा..
सुन्दर कविता! पर अभी तो ठिठुराती सर्दी नहीं आई।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंरिक्शे का चित्रण अलांग विथ कविता उम्दा है !
जवाब देंहटाएंतस्वीर की क्या बात है...!!!
जवाब देंहटाएंग़ज़ब..
बहुत सुन्दर वर्णन है भई. हमारे यहाँ की आज की पंक्ति जोड़ें तो:
जवाब देंहटाएंसिहर-सिहर जाई
क्यों हिम है बौराई
शीत ऋतु आई।
रात से बर्फ गिर रही है. आज सुबह होने का पता ही न चला. वैसे रिक्शा का चित्र भी अच्छा लगा.
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जवाब देंहटाएं.
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पोस्ट बांचते बांचते
सिहरन हो आई
धन्य है कविवर
ये तुम्हारी कविताई...
'ग्लोबल वार्मिंग' और 'क्लाइमेट चेन्ज' का सच, एक बहुत बड़ा धोखा है यह गरीब देशों के साथ...
कविता में भी ठंडक
जवाब देंहटाएंदेखौ घुसि आयी ..
मूरख निरखै शब्द-शिल्प
सुजानै ओढ़ि लिहिन
भाव-रस रजाई ..
ऐसी जौ पोस्ट मिलै
औ' ठंडक-ठिठुराइ ..
तौ हमरेव सन बुद्धू
जोरि दुई चार सबद
करै लागैं बेधड़क
सस्ती ( ? ) टिपियाई ..
बिल्कुल रीतिकालीन ऋतु वर्णन की याद आ गई ।
जवाब देंहटाएंजरा हट के हैं आपकी कविता । पुलकित प्रशंसा ।
दुन्नों देख लिया - आपकी कविताई और अमरेन्दर भईया की टिपियाई !
जवाब देंहटाएंचुप्पै चलि जाईं ?
गजब लिख दिए भाई
जवाब देंहटाएंअब हम का बताई
जब सर्दी बौराई
सरकारी खजाने
खास चौराहे पर
अलाव जलवाई
देरी कुछ हो न हो
कम्बल बँटवाने को
हल्ला मचाई
रिक्शेवाले पर अपनी एक कविता की पंक्ति याद आ गई" उसके पाँवों में इकठ्ठा ताकत रात को रोटी बन जाती है "
जवाब देंहटाएंआज " पुरातत्ववेत्ता " देखें ।
सुबह सुबह रजाई में लुकाने वाली ठण्ड... पुणे में तो पड़ती ही नहीं है !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
जवाब देंहटाएंअदभुत कविता है गिरिजेश भाई। और हां, शीर्षक तो सबसे जोरदार है।
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सलीम खान का हृदय परिवर्तन हो चुका है।
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।