जो दूसरों की हैं, कवितायें हैं। जो मेरी हैं, -वितायें हैं, '-' रिक्ति में 'स' लगे, 'क' लगे, कुछ और लगे या रिक्त ही रहे; चिन्ता नहीं। ... प्रवाह को शब्द भर दे देता हूँ।
शनिवार, 19 दिसंबर 2009
सियाही सियाही..
मन के उजले पर छिटकी है आज वक्त की सियाही
दु:ख के अक्षर बरसने लगे हैं
घर की छत का पनाला सियाही सियाही ।
उठता हूँ कि रोके है पलंग की चिर चिर
अलसाया है आलम ये वक्त, धरा है उनींदा, चिर चिर।
मत बातें करो चलने की
कि वक्त ठहरा ही रहा है, आज भी ठहरी हैं यादें
कोई पूछे है कि हुआ सब कैसे जाया
यूँ जाया । बिलाया। अलहदा सा सौदा ।
मैं कहता हूँ न पूछो कि जख्म रिसने लगे हैं।
वो: जज्बा-ए-बदला कि सँवार देंगे सब कुछ
पोंछ देंगे हर आँसू
खिलेंगे अनारदाने हर होठ की लाली
हर पालने में होगा एक खिलौना सा सपना
कि ज़िन्दगी होगी बस बरक्कत
न होगी जीने की फितरत मसक्कत -
सब हुए आज हैं अलहदा सा सौदा ।
मत बातें करो आज चलने की
दु:ख के अक्षर बरसने लगे हैं
सड़क है गढ़ही सियाही सियाही।
जिन को ले मशालें
जलानी थीं वो चौपालें जहाँ कटती हैं खालें
ज़िबह होते आदमी की जिन्दा मिसालें
वो: यूँ जा रहे हैं गो कि बस्ती है विराँ
उनके कानों टंगी है मोबाइल सियाही
सुनेंगे क्या वो मिसालें गवाही कि हाले तबाही ?
षड़यंत्र है ये आलिमों के जालिमों के
बैठे हैं वो तख्ते सियाही
लिए दामन उजले सियाही सियाही।
हाइवे पर उड़ता परिन्दा है भरमा
दरख्तों के साये बहकते सिसकते
हवाओं के झोंके अन्धे रेतीले
आँखों में तिलस्म भरते, सय्याद ये देखो सँवरते बने हैं।
जाल के भीतर उड़े हैं परिन्दे
ग़जब है बरक्कत कि जिन्दगी की मसक्कत
हो गई है ओझल। आहें फिजाँ में चहकने लगी हैं।
न पूछो कि हैराँ हूँ देखा किए हूँ तिलस्मे सियाही।
वो बाहों की मछलियाँ वो नजरों की तकलियाँ
वो जहीन चश्मे वाले वो टाई की गाँठें
वो छरहरे जिश्म वो दिमागों में इल्म -
बेकार बिला वजह सब बैठे हैं ठाले
चलेंगे भगेंगे कि क्षितिज पे सियाही
थकेंगे, फँसेंगे फेमिली बच्चे औ' रोजी
किसी दिन ऐसे ही बैठेंगे सोचेंगे कि
घर का पनाला उगले है सियाही।
देर हो रहेगी तब तक , ऐसे चलेगा कब तक
मैं सोचे हूँ- मेरे सामने है सियाह बोलेरो
उतरे हैं वो: उजले आलिम जालिम सियाही
दु:ख भग गया है दाँत निपोरे मैं हाथों को जोड़े
खड़ा हूँ - हे हे। मेरे पीछे है छुप गई सियाही सियाही।
सब ठीक है आओ बैठो मेरे कसाई सियाही -
जिबह के सामाँ छिटकने लगे हैं - खुशियाँ ही खुशियाँ।
मन के उजले पर छिटकी है आज वक्त की सियाही
दु:ख के अक्षर बरसने लगे हैं
घर की छत का पनाला सियाही सियाही ।
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हर पालने में होगा एक खिलौना सा सपना
जवाब देंहटाएंकि ज़िन्दगी होगी बस बरक्कत
न होगी जीने की फितरत मसक्कत -
सब हुए आज हैं अलहदा सा सौदा ।
मत बातें करो आज चलने की
दु:ख के अक्षर बरसने लगे हैं..
आपकी यह पंक्तियाँ मन को छू गयीं हैं ..... आज सुबह आपसे जब बात कर रहा था,,.... उस वक़्त मेरे मन बहुत कुछ ऐसा था जो मैं कहना चाहता था..... और आप बिना कहे समझ गए..... मुझे ऐसा लगता इस कविता में वो पंक्तियाँ हैं.... जो मैं कहना चाहता था.... और आप समझ गए... इतनी अच्छी कविता के लिए आपका आभारी हूँ....
सादर वन्दे
जवाब देंहटाएंक्या कहें जी!
बस पढ़ते ही रहे और बस........
रत्नेश त्रिपाठी
एक अच्छी कविता, हर रात की सुबह होती है। सूरज उगता है तो तारे मुहँ छिपाने लगते हैं।
जवाब देंहटाएं@ महफूज अली
जवाब देंहटाएंक्या करें एक तो बिस्मिल, अशफाक का बलिदान दिवस और दूजे अशफाक का वह खत! फिर आप के साथ घंटे भर की बात।
मन अवसाद ग्रस्त हो गया। सोचा मन का गुबार निकाल ही दूँ..
इंसान को अच्छाई का रामसेतु बनाने के लिए बस गिलहरी की तरह ही उद्योग करना सम्भव हो पाए तो निराशा हो ही जाती है।
बीच की कुछ लाईनों ने फ़ैज़ की नज़्में याद दिला दीं...
जवाब देंहटाएंअच्छा है अवसाद से फुरसतिया लिए ! कविता सचमुच सघन भावों को लिए है !
जवाब देंहटाएंधन्य हो !
जवाब देंहटाएंजय हो आपकी !
__बहुत ही उम्दा पोस्ट..........
अभिनन्दन !
हां .....ई तो बस आपही से संभव है ...और किसी से नहीं सियाही भी उजली उजली लगी आज तो
जवाब देंहटाएंआप की यह उजली उजली कविता बहुत सुंदर भाव लिए है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
वो: जज्बा-ए-बदला कि सँवार देंगे सब कुछ
जवाब देंहटाएंपोंछ देंगे हर आँसू
खिलेंगे अनारदाने हर होठ की लाली
हर पालने में होगा एक खिलौना सा सपना
कि ज़िन्दगी होगी बस बरक्कत
न होगी जीने की फितरत मसक्कत -
सब हुए आज हैं अलहदा सा सौदा ।
कभी कभी सिंगल्स भी लिया कीजिये...हर बार सिक्सर या बाउंडरी...क्या बात है...
हमेशा ही तरह महा उजली कविता....
धन्यवाद...
ये खाली सियाही
जवाब देंहटाएंये नाली सियाही
ये सड़कें, ये बागाँ,
ये माली सियाही
अजब शय है फितरत
जो कविता में डाली
जबरदस्त भाषा
उठाली सियाही।
कहें क्या
अजब सी विरानी चली है
बजाते है बनती है
ताली सियाही
.
जवाब देंहटाएं.
.
सोचा तो था
इक नये उजाले की
आने वाली आहट
आंखों के सपने
जो जिन्दा होते
उन जिन्दा ख्वाबों
की चमकीली इबारत
लिखेगी ये सियाही
कहाँ क्या हो गया
कुछ जरूर खो गया
अंधेरा क्या भारी
हुआ रोशनी पर
जो इतना सियाह
लिखने लगी सियाही
ये तेरी सियाही
सियाही सियाही....
राव साहब !
जवाब देंहटाएंशुरू में लगा की आखिर सियाही से सब क्यों जोड़ा
जा रहा है , पर जब सियाही के धर्म का स्मरण हुआ
तो समझ में आया की जोड़ा भी किससे जा सकता था !
यही थी मुफीद ..
.............. आभार ,,,
@ अमरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भैया, जो 'अक्षर' के भाव पकड़ लिए।