गए सप्ताह एक जूनियर महिला सहकर्मी ने सिविल इंजीनियरिंग की कुछ पुस्तकें माँगी। उनके पति को किसी परीक्षा के लिए चाहिए थीं। पढ़ाकू छवि होने से लोग निश्चित से रहते हैं कि मैंने कबाड़ सँजो कर रखा ही होगा। जाने कितनी पुस्तकों से मैं हाथ धो चुका हूँ - भुलक्कड़ स्वभाव और लेने वाले तो मंगन जाति दोष के कारण भुलक्कड़ हो ही जाते हैं :) ..
खैर पुस्तकें मेरे पास थीं, दे दीं। लेकिन चूँकि महिला के हाथ जानी थीं, इसलिए जाँच पड़ताल आवश्यक थी। असल में पढ़ाई के दौरान मेरी आदत थी कि कोई चित्र, कविता वगैरह अच्छी लगने पर उसे अखबार से काट कर पुस्तक के प्रारम्भ में चिपका देता था। राजीव ओझा जी के 'पढ़ै फारसी बेंचे तेल' वाले जुमले पर फिट होने वाला रूमानी स्वभाव ! बहुत बार ऐसे चित्र कलात्मक होते हुए भी 'संस्कारी' लोगों को धक्का पहुँचाने की योग्यता रखते थे। ..जाँच पड़ताल में ही यह चित्र और उसके नीचे पेंसिल से रची कविता दिख गई। मैंने उस पृष्ठ को फाड़ लिया। आज स्कैन कर पोस्ट कर रहा हूँ ... चित्र सम्भवत: कैलेण्डर चित्रकारी पर किसी अखबारी रिपोर्ट में से लिया गया था।
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आप का भूत देख कर अपना याद करने की कोशिश कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंसांवली नही ये तो पूरी बावली है
जवाब देंहटाएंहम मीडिया वालों को अश्लीलता दिखाने के लिये सदा कोसते रहते हैं मगर ब्लागर्ज़ ऐसी तस्वीरें अपने ब्लागज़ पर दें इस पार मुझे तो आपत्ति ह। दर्ज़ कर लें धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंचित्र पूरा होता तो और भी संभावना थी सृजन की खैर...सुंदर..:)
जवाब देंहटाएं"बहुत बार ऐसे चित्र कलात्मक होते हुए भी 'संस्कारी' लोगों को धक्का पहुँचाने की योग्यता रखते थे।"
काफी पहले जान गए थे मान्यवर..यह सत्य...कुछ लोग अभी भी नही.................!
एक बार और खँगालिये, बार-बार खँगालिये अपनी पुस्तकें । उनमें से ऐसी न जाने कितनी कँटीली, छबीली, छहरीली छवियाँ निकल आयेंगी ।
जवाब देंहटाएंमुझे पुस्तकों को कबाड़ कहने पर आपत्ति है । यह तो आपत्ति वाली पोस्ट है न ! सब आपत्ति जता रहे हैं, तो हम क्यों पीछे ?
अरे! भई.... आज आपने हमें मरवा दिया..... बहुत मार खाई है आज..... एक ठो महिला को इ कविता बोल दिए....उ महिला हिला हिला के मारी... उ का हम बोल दिए कंटीली...छबीली.... बस रख के कंटाप धर दीस हमरे गाल पे..... उ का हम आप हई का अड्रेस्वा दे दिए हैं.....
जवाब देंहटाएंबहुतही तडकीली भड़कीली कविता और छबि लगायें हैं...वाह...
जवाब देंहटाएंनीरज
सुंदर रचना ...... कवि की दृष्टि से बहुत अच्छा वर्णन है ..........
जवाब देंहटाएंवाह, याद आयी फिल्म की कविता शंकर हुसैन की - कहीं एक मासूम नाजुक सी लड़की!
जवाब देंहटाएंराव साहब !
जवाब देंहटाएंकाहे करेजे पै हसिया चलवा रहे हैं :)
अपना तो ऊ उम्र जी आये हैं और अब हम सब पै दराती !... :)
हम तौ कहबै ...
प्रस्तुतिया कटीली !
उधर देव जी नाजुक सी लडकी कै बात करै लगे हैं ... :(
क्या बात है!
जवाब देंहटाएंजिधर देखूं फिजां में रंग मुझको दिखता तेरा है
अंधेरी रात में किस चांदनी ने मुझको घेरा है।
हैं गहरी झील सी आँखें कहीं मैं डूब न जाऊं
तेरी चितवन है या डाला मदन ने अपना डेरा है।
बड़ा मासूम दिखता है ये नादां प्यारा सा चेहरा,
चुराकर ले गया यह दिल अरे पक्का लुटेरा है।
तू आँखें बंद करले तो अमावस रात है काली
हसीं मुस्कान में तेरी गुलाबी इक सवेरा है।
आप तो मुझे बहुत शरीफ़ लगते थे।
जवाब देंहटाएंकटीली कटीली और उस पर श्यामा -तब श्वेत श्याम छवियाँ ही दिल पर कटारी चला जाती थीं !
जवाब देंहटाएंमुझे भी एक ऐसे चित्र ने एम् एस सी में जो घेरा तो काफी समय तक मैं घिरा ही रहा ...
समय के साथ सब कुछ कालातीत होता जाता है .....मगर फिर से अतीत का कोई क्षण सहसा साकार हो उठे
तो क़यामत भी आ सकती है और लो यह आ गयी है -संभलते हैं हम भी !
अब ये तो नजर नजर का फेर है। आप को इस चित्र में सांवली सलोनी दिख रही है, मुझे यह बांकी चितवन की सहजता दिख रही है, राजा रवि वर्मा को यह अपने तूलिका की कला दिख रही होगी, हुसैन को गजनार तो किसी शिल्पकार को अपने छेनी और हथौडी की छिटकन सी लगती होगी।
जवाब देंहटाएंयही चित्र कोई इतिहासकार देखे तो जरूर गुप्तकाल या मौर्यकाल को याद करेगा......बस अपनी अपनी नजर का खेल है बंधु।
चूंकि आपने कविता भी लिख दी है तो इस चित्र को तो आप ही संभालो, अबहीं हम कछु नाहीं बोलेगें :)
सिविल के अलावा और कौन कौन सी किताबे हैं आपके पास. कुछ उधर दीजिये हमें भी बिना पलटे :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपने तो लोगों को उलझा दिया. किसी ने आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट दे दिया तो कोई इस हसीना को सांवली सलोनी कह रहा है. कितनी भी सांवली लग रही हो यह बाला, है तो यह गांव की 'गोरी' ही. लोग कटीली- कटीली की रट लगा रहे हैं, अगर मैं कहूं कि इस चित्र में तो कटि क्षेत्र दिखाया ही नहीं गया फिर भी हम उसके कर्व के कटीले पन की कल्पना कर रहे हैं. इसी कल्पना से सृजन होता है. अब यह आपकी दृष्टि पर है कि मुझे दुश्चरित्र कहें या दिव्यदृष्टा. मुझे फर्क नही पड़ता.
जवाब देंहटाएंपढ़ैं फारसी... वाला जुमला गलत नहीं था. हम में से ज्यादातर लोग तो यही कर रहे हैं. कोई फिजिक्स, केमेस्ट्री मैथ पढ़ कर दूसरों की फिजिक पर कविताएं रचता नजर आता है तो कोई कालिदास, वात्स्यायन घोंट कर थ्योरी आफ रिलेटिवटी, हॉकिंस की थ्योरी आफ बिगबैंग और एचआईवी पर कलम घिसता है. यही तो है किस्मत का खेल
आपकी इस तस्वीर पर महिला ब्लोगर्स को आपत्ति होना स्वाभाविक है.........!
जवाब देंहटाएंबहरहाल बिंदास पोस्ट को पढ़ कर मज़ा आया
कमाल है ...विद्वान महिलाओं की प्रतिक्रियाओं पर क्या कहें ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ! अपने अल्हडपन के दिनों को याद दिलाने के लिए , बहुत सुंदर चित्र हमारी हिन्दुस्तानी मोनालिसा का
शुभकामनायें :-
हिन्दुस्तानी मोनालिसा!!
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