मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

नरक के रस्ते : अभिशप्त, उदास, अधूरी सिम्फनी




निवेदन और नरक के रस्ते - 1
नरक के रस्ते - 2
नरक के रस्ते - 3
नरक के रस्ते – 4
नरक के रस्ते - 5 से जारी....
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शेर मर रहे हैं बाहर सरेह में
खेत में
झुग्गियों में
झोपड़ियों में
सड़क पर..हर जगह
सारनाथ में पत्थर हम सहेज रहे हैं
जय हिन्द।

मैं देखता हूँ
छ्त के छेद से
लाल किले के पत्थर दरक रहे हैं।
राजपथ पर कीचड़ है
बाहर बारिश हो रही है
मेरी चादर भीग रही है।
धूप भी खिली हुई है -
सियारे के बियाह होता sss
सियारों की शादी में
शेर जिबह हो रहे हैं
भोज होगा
काम आएगा इनका हर अंग, खाल, हड्डी।
खाल लपेटेगी सियारन सियार को रिझाने को
हड्डी का चूरन खाएगा सियार मर्दानगी जगाने को ..
पंडी जी कह रहे हैं - जय हिन्द।

अम्माँ ssss
कपरा बत्थता
बहुत तेज घम्म घम्म
थम्म!
मैं परेड का हिस्सा हूँ
मुझे दिखलाया जा रहा है -
भारत की प्रगति का नायाब नमूना मैं
मेरी बकवास अमरीका सुनता है, गुनता है
मैं क्रीम हूँ भारतीय मेधा का
मैं जहीन
मेरा जुर्म संगीन
मैं शांत प्रशांत आत्मा
ॐ शांति शांति
घम्म घम्म, थम्म !
परेड में बारिश हो रही है
छपर छपर छ्म्म
धम्म।

क्रॉयोजनिक इंजन दिखाया जा रहा है
ऑक्सीजन और हाइड्रोजन पानी बनाते हैं
पानी से नए जमाने का इंजन चलता है
छपर छपर छम्म।
कालाहांडी, बुन्देलखण्ड, कच्छ ... जाने कितनी जगहें
पानी कैसे पहुँचे - कोई इसकी बात नहीं करता है
ये कैसा क्रॉयोजेनिक्स है!
चन्नुल की मेंड़ और नहर का पानी
सबसे बाद में क्यों मिलते हैं?
ये इतने सारे प्रश्न मुझे क्यों मथते हैं?
घमर घमर घम्म।

रात घिर आई है।
दिन को अभी देख भी नहीं पाया
कि रात हो गई
गोया आज़ाद भारत की बात हो गई।
शाम की बात
है उदास बुखार में खुद को लपेटे हुए।
खामोश हैं जंगी, गोड़न, बेटियाँ, गुड्डू
सो रहे हैं कि सोना ढो रहे हैं
जिन्हें नहीं खोना बस पाना !
फिर खोना और खोते जाना..
सोना पाना खोना सोना ....
जिन्दगी के जनाजे में पढ़ी जाती तुकबन्दी।  
इस रात चन्नुल के बेटे डर रहे हैं
रोज डरते हैं लेकिन आज पढ़ रहे हैं
मौत का चालीसा - चालीस साल
लगते हैं आदमी को बूढ़े होने में
यह देश बहुत जवान है।

जवान हैं तो परेड है
अगस्त है, जनवरी है
जवान हैं परेड हैं
अन्धेरों में रेड है।
मेरी करवटों के नीचे सलवटें दब रही हैं
जिन्दगी चीखती है - उसे क्षय बुखार है।
ये सब कुछ और ये आजादी
अन्धेरे के किरदार हैं।
मेरी बड़बड़ाहट
ये चाहत कि अन्धेरों से मुक्ति हो
ये तडपन कि मुक्ति हो।
मुक्ति पानी ही है
चाहे गुजरना पड़े
हजारो कुम्भीपाकों से ।
कैसे हो कि जब सब ऐसे हो।

ये रातें
सिर में सरसो के तेल की मालिश करते
अम्माँ की बातें
सब खौलने लगती हैं
सिर का बुखार जब दहकता है।
और?
.. और खौलने लगता है
बालों में लगा तेल
अम्माँ का स्नेह ऐसे बनता है कुम्भीपाक।
(हाय ! अब ममता भी असफल होने लगी है।)
माताएँ क्या जानें कि उनकी औलादें
किन नरकों से गुजर रही हैं !
अब जिन्दगी उतनी सीधी नहीं रही
जिन्दगी माताओं का स्नेह नहीं है। 
भीना स्नेह खामोश होता है...
सब चुप हो जाओ।
अम्माँ, मुझे नींद आ रही है..जाओ सो जाओ।
..एक नवेली चौखट पर रो रही है
मुझे नींद आ रही है...

16 टिप्‍पणियां:

  1. महाकाव्य है

    पहले के भाग भी अवश्य यही कहते होंगे. वहां अब जाता हूँ.
    रचना अद्भुत है.

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  2. लाक्षणिक कविता है। बीमारी के निदान की चाह की ओर धकेलने वाली। बधाई!

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  3. बहुत खुब सुरत लगी आप की यह कविता.
    धन्यवाद

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  4. बालों में लगा तेल
    अम्माँ का स्नेह ऐसे बनता है कुम्भीपाक।
    (हाय ! अब ममता भी असफल होने लगी है।)

    शानदार!!


    यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि आप हिंदी में सार्थक लेखन कर रहे हैं।

    हिन्दी के प्रसार एवं प्रचार में आपका योगदान सराहनीय है.

    मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं.

    नववर्ष में संकल्प लें कि आप नए लोगों को जोड़ेंगे एवं पुरानों को प्रोत्साहित करेंगे - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    निवेदन है कि नए लोगों को जोड़ें एवं पुरानों को प्रोत्साहित करें - यही हिंदी की सच्ची सेवा है।

    वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

    आपका साधुवाद!!

    नववर्ष की अनेक शुभकामनाएँ!

    समीर लाल
    उड़न तश्तरी

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  5. धत्तेरे की..

    जब हमारे पढ़ने/समझने योग्य लिखें, तो खबर किया जाये।

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  6. अब तो सारे भाग को इत्मीनान से पढ़ कर इस पर टिप्पणी करता हूँ.... अभी सबका प्रिंट आउट ले लिया हूँ.... लेटे-लेटे सब पढ़ता हूँ....

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  7. किले के पत्थर दरक रहे हैं।

    खूनम खून लालम लाल
    बघनख, पंजे, सिंघीखाल

    हैं गिरोह सियारों का
    वहां और क्या होगा हाल

    जो मौत से डरते है
    तिल तिलकर मरते हैं

    सर बेच के अपनों के
    बस झोली भरते हैं

    उनकी क्यों है धरती
    उनका है यहाँ क्या काम

    इन औरों की खातिर
    जो हंसकर मरते हैं

    कुछ कर ही गुज़रते हैं
    उनका ही होता नाम

    मुझको बस उनसे ही काम
    हमको बस उनसे ही काम

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  8. आप भी गिरिजेश भइया ,यह अतिसंवेदनशीलता ही नहीं क्लैव्यता की निशानी है !
    असमय यह कैसी दीनता ? अब तो आप के खाने खेलने के दिन आये है -
    उठिए यी संवेदनवा क गोली मारिये ,नाही तो ऐसा ही कपरवा अन्नोर मचायिस रहे
    कवितवा त अच्छी बा मुला काहें जिन्दगी क बर्बादी पे उतारू हय भैवा -तनिक मौज मस्ती ल
    बड़े जतन मानुष तन पावा !

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  9. कविता वितृष्णा भरी संवेदनों से भरी है ...
    मगर असहमत हूँ इस बात पर कि ...
    " चालीस साल लगते हैं आदमी को बूढ़े होने में "
    यह भी कोई उम्र है बुढ़ापे की ...
    वैसे तो कमसिन उम्र में बुढ़ापा ढोते बहुतेरे मिल जायेंगे...

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  10. अबॉर्शन. क्यों किया ऐसे ? अच्छी तो जा रही थी.

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  11. मैं शांत प्रशांत आत्मा
    ॐ शांति शांति
    घम्म घम्म, थम्म !
    परेड में बारिश हो रही है
    छपर छपर छ्म्म
    धम्म।
    ---कमाल का शब्द चित्र!

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  12. क्या भैया! ई त लागत है की पोस्ट कोलोनियल कविता पढ़ रहे हैं ....


    इलियट की आत्मा निश्चय ही आशीर्वचन दे रही होगी......



    साधुवाद

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  13. अपने व्यक्तित्व में पूरे भारत का मानवीकरण कर दिया है आपने ......"मेरी करवटों के नीचे सलवटें दब रही हैं
    जिन्दगी चीखती है - उसे क्षय बुखार है। "
    करवटों के नीचे सलवटों का दबना बदलती परिस्थितियों में सांस्कृतिक मूल्यों के अडजस्टमेंट में हो रही कसमसाहतों को इंगित करते लगते हैं .......

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  14. "इलियट की आत्मा निश्चय ही आशीर्वचन दे रही होगी !!!!!!!!!!!"
    "इलियट" :) :) :) mai akela nahi hu jise yah lagtaa hai !

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  15. इस कविता से ये लगता है कि 'द वेस्ट लैण्ड' भारतीय कलेवर ले के आया है........

    '.......we are in rat's alley'


    पोस्ट कोलोनियल कविता इस लिए लगती है क्योंकि दबे हुए क्रोध ने बारम्बार दस्तक दी है........

    (please read osborne's'look back in anger'& harold pinter's 'the birthday party') you will be amazed to find yourself walking among the characters.........



    वैसे मुझे तो ये कविता हर एक 'common stupid indian' की लगती है.......


    जारी रखें

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