_________, समय:__________ गीताञ्जलि के लिए
प्रिय!
कल खड़ी थी तुम्हारे द्वार
रीतियों के वस्त्र पहने
परम्परा का कर श्रृंगार
तूने कपाट नहीं खोले
लौट गई मैं निराश -
आज फिर खड़ी द्वार
प्राकृतिक
वस्त्र हीना ।
बस कुंकुम अंकित भाल
प्रिय द्वार खोलो न -
नग्नता का अभिसार
कितना सुन्दर !
पहना दो आलिंगन वस्त्र
कर दो स्पर्श श्रृंगार
भर रोम रोम मादक रस धार।
प्रिय!
द्वार खोलो
देखो
नग्नता कितनी सुन्दर है !
purani diary se bahut hi sunder kavita......
जवाब देंहटाएंबड़ी सबलायिम है भाई !
जवाब देंहटाएंसुंदर है कविता-आभार
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना..
जवाब देंहटाएंबढिया । भाव पसंद आये । कुंकुंम की भी क्या जरूरत है ।
जवाब देंहटाएंरुमान
जवाब देंहटाएंसिर से पांव तक रुमान
यह रिझाने को भिन्न भंगिमायें क्यों रखती है नारी। रूठ भर जाये। तलवे पर नत होगा प्रिय फिर! :-)
जवाब देंहटाएंभैया !
जवाब देंहटाएं'' तब हार पहार ते लागत हैं अब आनि के बीच पहार परे ''
................................
अरे
जब तक '' रीतियों के वस्त्र पहने / परम्परा का कर श्रृंगार ''
रहता है , तब तक तो कसक है ... '' तूने कपाट नहीं खोले '' परन्तु
जब '' प्राकृतिक / वस्त्र हीना '' की स्थिति आती है वैसे अनुभव होने
लगता है '' देखो / नग्नता कितनी सुन्दर है ! '' ... अब मुझे भी
कहना होगा , वाह ... :)
क्या यही भाव है या मैं .......... मू ...........र्ख............!!!
बहरहाल ,,,,,,,,,,, आभार ......................................
ऐसी कवितायें उदात्त सौन्दर्य-अभिभूत चेतना रचती है ।
जवाब देंहटाएंविभोरता का एक प्रहसन प्रकटतः मूक रह जाने को विवश कर देता है ।
बहुत आध्यात्मिक कविता है .. मुझे तो उन दिनो की आत्मा से परमात्मा के मिलन वाली कविताओं की ध्वनि सुनाई दी । गीतांजलि पर कुछ प्रकाश नहीं डालेंगे?
जवाब देंहटाएंपाठक वर्ग ने चैट और टिप्पणी में 'गीतांजलि' के बारे में जानने की उत्सुकता दिखाई है। यह कविता उस आयु की रची हुई है जब संसार की हर सुन्दर रचना को देख प्रेम उपजता है। आयु कहना सम्भवत: ठीक नहीं है - एक स्टेज कहना ठीक होगा शायद।
जवाब देंहटाएंयह वह दौर था जब मन रूमान सा हो जाता था - तुलसी के पत्तों पर ओस देख, जाड़े की शाम में आसमान और धरती के बीच परत बन उतरते कस्बे के धुएँ को देख, उगते सूरज को देख ..और हाँ किसी सुन्दर लड़की को देख कर भी। ..
इसी दौर में प्लेटफॉर्म से गीतांजलि का हिन्दी अनुवाद खरीदा था। पढ़ने के बाद कुछ कुछ हुआ.. और फिर एक दिन अंग्रेजी प्रति हाथ लगी - I shall ever try to keep my body pure knowing that thy living touch is upon all my limbs. .. पंक्ति कुछ ऐसी धँसी मन में कि गुरुदेव की अपनी काव्यकृति के अनुवाद में ही दोष नज़र आने लगा।
..पिताजी! pure नहीं कोई और शब्द होना चाहिए! पिताजी ने अज़ीब सी दृष्टि से देखा था - बेटे, कुछ और पढ़ो।
..एक वर्ष और कॉलेज में पहुंच गया। सूफी दर्शन, गुरुदेव का रहस्यवाद, आचार्य रजनीश और खलील जिबान का पैगम्बर। .. मन पता नहीं क्या हो गया था ! कच्चे प्रेम की टूटन की पीर भी थी ।... क्या आप विश्वास करेंगे कि जब यह रची गई तो उस समय Communist Manifesto और शेखर एक जीवनी एक साथ पढ़े जा रहे थे ?.... नहीं, गीताञ्जलि नाम की कोई लड़की मेरे जीवन में न थी और न है। :)