गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

रात साढ़े तीन बजे

(1)
नींद टूटती रह रह
स्वप्न माशुकाएँ
कर फुरफुरी कानों में
खिलखिलाएँ -
इतनी सारी !
(2)
शाम - प्रगल्भ वासना
निर्वसन - मुझे भोगो।
(3)
ईश्वर नाम सुमिरन -
छपते समाचार पत्र
लाखों रोज, रोज का टंटा
वही पुरानी मशीनें -
वही रोज कटते पेंड़।
(4)
सुराही हुई औंधी
तुम्हारी स्मृति
बहती - घुड़ घुड़ घुड़
घड़प !
(5)
माँ ने जलाया दीप
गाँव में शमीं तले
शाम ढले जवान बिटिया
निकली होगी दूर शहर में
प्रेमी से मिलने।
(6)
मन काठ का टुकड़ा
तलछट में  पड़ा।
उमड़ी जो भाव सलिल
उपरा ही गया ।
(7)
खिलखिला बतिया रही लड़कियाँ
चुप हुईं अचानक -
एक गोद में लिए
एक उंगली पकड़ाए
एक पेट में लिए
औरत दिखी
सड़क क्रॉस करते।
(8)  
देखो मेरी आँख में कैसी किरकिरी !
..तुम्हें कुछ न मिला  !!
मरे सपने यूँ ही किरकिराते हैं।
(9)
एसी चैम्बर में 31 मार्च क्लोजिंग . . . . 
छत पर बैठे कब के रिटायर्ड पिताजी 
और अम्माँ
उम्र का हिसाब कर रहे होंगे - 
शाम ढले बिन बिजली बिन पंखे।
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रात कुसमय ही नींद खुल गई। क्षणिकाएँ उसी समय की उपज हैं। 
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15 टिप्‍पणियां:

  1. सभी क्षणिकाएं लाजवाब लगी हैं....
    एक से एक चित्र उकेर दिए हैं आप...
    सुन्दर अति सुन्दर...

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  2. बेचैन मनस्थितियों के कितने हृदयस्पर्शी शेड्स -लाजवाब!बेहद गर्मी है भैया और इसमें कोई ठन्डे शीतल अहसासों का घनदा औंधाकर रीत जाए तो बड़ा ही जुलुम हो जाय -आखिर कैसे कटे यह आतप ?

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  3. आपकी कविता को समझने की कोशिश कर रहा हूँ ---''…”

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  4. जबर्दस्त क्षणिकाएं हैं। एक से एक बढकर।

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  5. खिलखिला बतिया रही लड़कियाँ
    चुप हुईं अचानक -
    एक गोद में लिए
    एक उंगली पकड़ाए
    एक पेट में लिए
    औरत दिखी
    सड़क क्रॉस करते।
    ---vah! kya baat hai!

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  6. सुराही हुई औंधी
    तुम्हारी स्मृति
    बहती - घुड़ घुड़ घुड़
    घड़प !
    ----- शमशेर के सुराही औंधाने के बिंब
    का स्मरण आ गया !

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  7. अमाँ शमशेर की पूरी कविता दो। लोग बाग नकलची होने का फरमान न जारी कर दें!

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  8. रोज रात के साढ़े तीन बजे उठा कीजिये... नींद ना खुले तो कहिये हम जगा दिया करेंगे :)

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  9. वाह साहब! क्या बात है। आपकी कवितायें/रचनायें पढ़ कर लगता है यहाँ आना सार्थक हुआ। खुद ब खुद टिप्पणी हो जाती है।

    मानसी

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