सोमवार, 19 अप्रैल 2010

...प्रेम को

हुए नयन बन्द
टपके मधु बिन्दु
अधर पर अधर
और मधुर
हंसी
लाज घूंघट
झांक गई भाग
दसन अधर
मन सन सन
हाथ बरज हाथ
न करो स्पर्श
काम कुम्भ
हाथ झिटको नहीं !
बस रखो वहीं
सुख सुख
गलबहियां क्या खूब !
छू रहीं अनछुओं को
तार रहीं
अस्पृश्य को
प्रेम को।

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर लगी आप की यह कविता
    धन्यवाद

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  2. कोई शब्द अतिरिक्त नहीं,
    भाव कहीं कोई रिक्त नहीं,
    फिर कैसे कोई बोल रहा था,
    हृदय प्रेम से तिक्त नहीं ।

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  3. ऐसी कालजयी रचनाओं पर टिप्पणियों का अभाव सालता है ! यहीं हिन्दी ब्लागिंग की******जाती है !

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  4. हिंदी ब्लॉग्गिंग की **** तो ठीक. पर ऐसी रचना पर एक इसी तरह की कटीली तस्वीर भी तो होनी चाहिए :)

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  5. वाह, श्रृंगार रस से ओतप्रोत कविता.. और अभिषेक से सहमत.. :)

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