कौन कहता है आसमाँ में नहीं होते सुराख
ग़ौर से देखिए हमने भी कुछ बनाए हैं ।
नज़र भटकती नहीं किनारों की महफिल पर
ज़ुनूँ का शौक तो मझधार की बलाएं हैं।
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स्पष्ट है कि पहली पंक्ति दुष्यंत से प्रेरित है। पहली दो पंक्तियों का संशोधन अमरेन्द्र जी ने किया है। अंतिम दो पंक्तियों को आचार्य जी ने पास कर दिया :) ;)
जाने क्यों न तो इनके पहले कुछ रचा जा रहा और न बाद में। जैसा है प्रस्तुत है।
जब आपने मेरे ब्लॉग पर लिखा कि आपने भी आज चार पंक्तियाँ पोस्ट की है तो मन किया चलो देखूं की किसकी चार पंक्तियों में ज्यादा दम है, निसंदेह आपने बाजी मार ली
जवाब देंहटाएंहाँ हाँ आप भी तो यही दिखे हैं -मझदार में -एक से भले दो ?
जवाब देंहटाएंइतना ही पूरा है महाराज!! बहुत उम्दा!
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत शानदार पंक्तियां हैं.
जवाब देंहटाएंवाह वाह जी ज्बाब नही बहुत सुंदर, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर बनी है आपकी कविता...
जवाब देंहटाएंचार पंक्तियों में चार किताबें समाई लगतीं हैं...
धन्यवाद...
बहुत ही सुन्दर बनी है आपकी कविता...
जवाब देंहटाएंचार पंक्तियों में चार किताबें समाई लगतीं हैं...
धन्यवाद..
@ जुनूँ का शौक तो मझधार की बलाएँ है ...
जवाब देंहटाएंगजबे - गजब ...
कश्तियाँ जो किनारे पर डूब जाया करती हैं
क्या वे भी साहिल की तमन्ना लिए फिरती हैं
किनारों ने ही भटकाया जिनको तमाम उम्र
कहाँ मझधारों की बलाएँ लिया करती हैं....
@एक संशोधन बलाएँ को बालाएं करें !
जवाब देंहटाएंएक शेर याद आ रहा है ---
जवाब देंहटाएं'' कश्तियाँ यूँ भी डूब जातीं हैं
नाखुदा किसलिए डराते हो | ''
कौन कहता है मुकम्मल नहीं हैं ये मिसरे
जवाब देंहटाएंइनमें दो-चार मुकम्मल गजल समाए है।
नज़र भटकती नहीं मेरी मीर गालिब पर
मन मेरा आज इन्हीं लहरों पे ललचाए है।