गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ज़ुनूँ का शौक

कौन कहता है आसमाँ में नहीं होते सुराख
ग़ौर से देखिए हमने भी कुछ बनाए हैं ।
नज़र भटकती नहीं किनारों की महफिल पर
ज़ुनूँ का शौक तो मझधार की बलाएं हैं। 
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स्पष्ट है कि पहली पंक्ति दुष्यंत से प्रेरित है। पहली दो पंक्तियों का संशोधन अमरेन्द्र जी ने किया है।  अंतिम दो पंक्तियों को आचार्य जी ने पास कर दिया :) ;) 
 जाने क्यों न तो इनके पहले कुछ रचा जा रहा और न बाद में। जैसा है प्रस्तुत है। 

11 टिप्‍पणियां:

  1. जब आपने मेरे ब्लॉग पर लिखा कि आपने भी आज चार पंक्तियाँ पोस्ट की है तो मन किया चलो देखूं की किसकी चार पंक्तियों में ज्यादा दम है, निसंदेह आपने बाजी मार ली

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  2. हाँ हाँ आप भी तो यही दिखे हैं -मझदार में -एक से भले दो ?

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  3. इतना ही पूरा है महाराज!! बहुत उम्दा!

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  4. वाह वाह जी ज्बाब नही बहुत सुंदर, धन्यवाद

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  5. बहुत ही सुन्दर बनी है आपकी कविता...
    चार पंक्तियों में चार किताबें समाई लगतीं हैं...
    धन्यवाद...

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  6. बहुत ही सुन्दर बनी है आपकी कविता...
    चार पंक्तियों में चार किताबें समाई लगतीं हैं...
    धन्यवाद..

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  7. @ जुनूँ का शौक तो मझधार की बलाएँ है ...
    गजबे - गजब ...

    कश्तियाँ जो किनारे पर डूब जाया करती हैं
    क्या वे भी साहिल की तमन्ना लिए फिरती हैं
    किनारों ने ही भटकाया जिनको तमाम उम्र
    कहाँ मझधारों की बलाएँ लिया करती हैं....

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  8. एक शेर याद आ रहा है ---
    '' कश्तियाँ यूँ भी डूब जातीं हैं
    नाखुदा किसलिए डराते हो | ''

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  9. कौन कहता है मुकम्मल नहीं हैं ये मिसरे
    इनमें दो-चार मुकम्मल गजल समाए है।
    नज़र भटकती नहीं मेरी मीर गालिब पर
    मन मेरा आज इन्हीं लहरों पे ललचाए है।

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