रविवार, 4 अप्रैल 2010

हलचल - बस यूँ ही

तुम आओ तो न बात बने जाओ तो न बात बने
रहो अपने घर ही, मिलने मिलाने की जो बात बने।


हुक्का ए अवध, बनारस पान गुल कन्द मिष्ठान्न
सूरत नहीं सुरत नहीं, दिल ही न मिले क्या बात बने


बदल बदल जागते रहे रात भर करवटों के पहलू
सोचा किए तुम्हारे अंग हों तो नींद सी कुछ बात बने


चुरा कर शाम से दो पल लाए तनहा इस अँधियारे में
सबेरे सबेरे दिए गलबहिंया मन्दिर चलो तो बात बने।

14 टिप्‍पणियां:

  1. ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है .

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  2. गजब का शायराना अन्दाज है...!
    कोई क्यों न मर मिटे..!
    आभार..!

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  3. इस सुंदर रचना को साझा करने के लिए आभार।

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  4. तबियत तर हुई नहीं पूरी तरह
    कुछ जगजगाओ तो बात बने

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  5. NA JANE KYUN HE HAL CHAL

    achi kavita he

    man bh gai
    http://kavyawani.blogspot.com/


    shekhar kumawat

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  6. चुरा कर शाम से दो पल लाए तनहा इस अँधियारे में
    सबेरे सबेरे दिए गलबहिंया मन्दिर चलो तो बात बने ..

    वाह वाह ..... कुछ कुछ ख़ुसरो अंदाज़ की रचना ..
    बहुत अच्छा है आपका ये अंदाज़ ..

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  7. ...तो बात बने ..बने क्या बात जहाँ बात बनाए न बने ...
    रहो अपने घर ही ...फिर वह अभिसारिका क्योकर हुयी गिरिजेश भैया ?

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।

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  10. अब आप गजलियाने लगे हैं !
    '' मयखाना-ए-रिफार्म की चिकनी जमीन पर ,
    वाइज का खानदान भी आकर फिसल गया | ''
    ( फिलहाल शायर का नाम नहीं याद आ रहा है )

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  11. हुक्का ए अवध, बनारस पान गुल कन्द मिष्ठान्न
    सूरत नहीं सुरत नहीं, दिल ही न मिले क्या बात बने.....

    बात बन गयी जी .....और बहुत अच्छी बनी

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