सोमवार, 5 अप्रैल 2010

इबादत

ज़र्रा ज़र्रा है खुदाई नूर से रोशन 

हम इबादत में आँखें मूँदे बैठे हैं। 
 

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब। इसीलिए तो हम आंखें खुली रखकर इबादत करते हैं।

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  2. वाह,इन दो लाइनों में सब कुछ समाहित कर दिया.

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  3. हम इबादत में आँखें मूँदे बैठे हैं।

    बहुत खूब !

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  4. एक बन्द याद आ गयी...
    "दिल ने इक ईंट से तामील किया ताजमहल
    तूने इक बात कही लाख फसाने निकले..!"
    आभार..!

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  5. लीजिये हम भी इबादती-ठोंक शेर-वा रहे हैं ---
    '' जब इबादत में आँख ज़रा ज़रा खुली रहे ,
    तब इबादत का लुत्फ़ और भी नूरानी है | ''
    -------------- तन्मनिया-चितवन को तो आप बखूबी जानते ही हैं न !

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  6. ज़र्रे-ज़र्रे से ही है ख़ुद ख़ुदा रौशन
    ख़ुदाई गफ़लत में आंखें गंवा बैठे हैं....

    वाह..क्या तुकबंदी है...
    बेहतर विचार...

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  7. वाह वाह जी हमीं मन की आंखे बन्द किये रहते है, बहुत सुंदर शेर आप का धन्यवाद

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