चिट चटर चट
हवा आँगन पर तनी
चद्दर चैट चीत बात।
कहीं दूर चौकीदार की सीटी
टिर्र टिर्र
कम्प्यूटर टेबल से आती
चिर्र चिर्र
लकड़ी धीरे धीरे हो बुरादा
झड़ रही ज़िन्दगी सी।
गाती हवा लोरी
सहला सहला
चाँद की चादर ओढ़
सोए हैं पार्क में फूल बन्द ।
सनसना रहा पंखा छत पर
पूजा कोण से नील प्रकाश
कटता पुन: पुन:
बगल में पड़ी पुस्तक के अक्षर
बाँच रहा पुन: पुन: ।
बन्द है नाक
तलवा जैसे जम गई हो साँस
इचिंग पूरे चेहरे पर
त्वचा और मांस के बीच कहीं
खुजला भी नहीं पा रहा
खींचता साँस बरमंड
निर्वात भरती पीड़ा।
इलेक्ट्रॉनिक घड़ी
खच्च खच्च
धीमे धीमे
समय को रोक
मरोड़ रही
चैन का गला।
खर्राटों भरा
कमरा बगल का
एसी और कूलर ध्वनि
द्वन्द्व द्वन्द्व
नींद कड़ुवा रही
आँख मन्द मन्द ..
कितनी रातें यूँ ही जागता
अपनी करवटों को सुलाता रहा हूँ।
कविता में पंक्तियों की बढती घटती लम्बाई कोई आकृति बना रही है क्या?
जवाब देंहटाएंकितनी रातें यूँ ही जागता
जवाब देंहटाएंअपनी करवटों को सुलाता रहा हूँ।
करवटें भी तो तभी सो पायेंगे जब आप सोयेंगे.
बहुत सुन्दर
सुन्दर भावों से सजी कविता के लिए बधाई!
जवाब देंहटाएंअकेले का संगीत नाद -
जवाब देंहटाएंकरे वक्त यूं ही बर्बाद !
उफ़ सांझ सकारे का अहसास
मुला मिलने की न कोई आस
अनाटामी आफ लोनेलिनेस
उपजाती कैसी सायकोसिस
परानायड विच्श्रिनखल सा वजूद
कब हो सके सब कुछ मौजूद ..
जो हमने चाहा .....
सुन्दर भावों से सजी कविता के लिए बधाई!”
जवाब देंहटाएंNICE
जवाब देंहटाएंshekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
...सुन्दर भाव!!!
जवाब देंहटाएंपसीना। अपने पसीने की गंध भी पता चलती है ऐसे वक्त। सोने नहीं देती।
जवाब देंहटाएंलय बनी रही ।
जवाब देंहटाएंभावो से सजी आप की यह रचना बहुत सुंदर लगी
जवाब देंहटाएंलगा बस कविता यहीं थी...
जवाब देंहटाएंकितनी रातें यूँ ही जागता
अपनी करवटों को सुलाता रहा हूँ।...
@ रवि जी,
जवाब देंहटाएंमैं चितेरा शब्दों का
न तूलिका न प्रेरणा
आँखों के कैनवास
अनुभूतियों के रंग
अंगुलियों से फेर दिया करता हूँ।
कविता का स्थूल स्थापत्य भी बेजोड़ है ..
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