रविवार, 8 नवंबर 2009

लगे रहो

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यह कविता इस प्रयास को समर्पित

लगे रहो।
जब सब कुछ हो विरुद्ध व्यर्थ 
हो रहे हों अनर्थ।  
अबूझ को सूझ और
देने को कुछ अर्थ। 
लगे रहो।  

गरजता घनघोर 
समन्दर बेइमान। 
हों भले मन्द स्वर 
या सजे गिलहरी का मौन  
पुल निर्माण को  
लगे रहो। 

रेत में कदम
बहक चलें या सहम। 
बने कैसे पत्थर लीक 
तुम न पाए सीख। 
धुल जाएँगे अक्ष
किंतु अपने पढ़ान का
करते लिखान 
लगे रहो।  

शापित हैं हम। 
क्या हुआ जो जुड़े न लख कदम।
दो दो के गुणान को
पहाड़े की शान को 
चढ़ते रहो
लगे रहो।

12 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !तेजस्वी उदबोधन ! निश्चय ही catalytic होगा !

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  2. गरजता घनघोर
    समन्दर बेइमान।
    हों भले मन्द स्वर
    या सजे गिलहरी का मौन
    पुल निर्माण को
    लगे रहो।

    bahut sundar !

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  3. दो दो के गुणान को
    पहाड़े की शान को
    चढ़ते रहो
    लगे रहो।
    कितना सघन है आपका आह्वान. बहुत सुन्दर

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  4. "धुल जाएँगे अक्षर
    किंतु अपने पढ़ान का
    करते लिखान
    लगे रहो।"

    हम तो यहीं ठहर गये भईया । जबरदस्त ।

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  5. लगे रहो।
    जब सब कुछ हो विरुद्ध व्यर्थ
    हो रहे हों अनर्थ।
    अबूझ को सूझ और
    देने को कुछ अर्थ।
    लगे रहो....

    LAJAWAAB .... SUNDAR AAHWAAN HAI ....KARM PATH PAR LAGE HI RAHNA CHAAHIYE ...

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  6. थकोहम को भूलकर
    टांग दिया सूल पर
    माँ गंगा की जै जै
    धत् तू तू मै मै
    करते साकार समय निज का
    धर्म ध्वजा धारे हो द्विज का
    लगे रहो

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  7. भाई कविता भी अच्छी है चित्र भी अच्छा है लेकिन यह लोग समन्दर के किनारे क्या साफ सफाई कर रहे है या कुछ और ?

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  8. ओह, वह पूछता था कि यह सूझा कैसे सफाई का। मैने कहा सूझना क्या है? नदी के पास जाओ और सुनो तो खुद बोलती है।

    हां धीमे बोलती है - यत्न कर सुनना होता है!

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  9. वीर तुम बढे चलो
    धीर तुम बढे चलो

    सामने पहाड़ हो
    सिंह की दहाड़ हो
    तुम निडर हटो नहीं
    तुम निडर डटो वहीं

    वीर तुम बढे चलो
    धीर तुम बढे चलो :)

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  10. 'शापित हैं हम।
    क्या हुआ जो जुड़े न लख कदम।
    दो दो के गुणान को
    पहाड़े की शान को
    चढ़ते रहो'

    ye panktiyan khaas lagin.

    Ati uttam kavita!

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