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रविवार, 8 नवंबर 2009

लगे रहो

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यह कविता इस प्रयास को समर्पित

लगे रहो।
जब सब कुछ हो विरुद्ध व्यर्थ 
हो रहे हों अनर्थ।  
अबूझ को सूझ और
देने को कुछ अर्थ। 
लगे रहो।  

गरजता घनघोर 
समन्दर बेइमान। 
हों भले मन्द स्वर 
या सजे गिलहरी का मौन  
पुल निर्माण को  
लगे रहो। 

रेत में कदम
बहक चलें या सहम। 
बने कैसे पत्थर लीक 
तुम न पाए सीख। 
धुल जाएँगे अक्ष
किंतु अपने पढ़ान का
करते लिखान 
लगे रहो।  

शापित हैं हम। 
क्या हुआ जो जुड़े न लख कदम।
दो दो के गुणान को
पहाड़े की शान को 
चढ़ते रहो
लगे रहो।