13 दिसम्बर 1993, समय:__________ श्रद्धा के लिए
तुम्हारा बदन
स्फटिक के अक्षरों में लिखी ऋचा
प्रात की किरणों से आप्लावित
तुम्हारा बदन।
दु:ख यही है
मेरे दृष्टिपथ में
अभी तक तुम नहीं आई।
कहीं ऐसा तो नहीं
कि तुम हो ही नहीं !
नहीं . . . .
पर मेरी कल्पना तो है -
"तुम्हारा बदन
तुम्हारा बदन
स्फटिक के अक्षरों में लिखी ऋचा
प्रात की किरणों से आप्लावित
तुम्हारा बदन।
दु:ख यही है
मेरे दृष्टिपथ में
अभी तक तुम नहीं आई।
कहीं ऐसा तो नहीं
कि तुम हो ही नहीं !
नहीं . . . .
पर मेरी कल्पना तो है -
"तुम्हारा बदन
स्फटिक के अक्षरों में लिखी ऋचा
प्रात की किरणों से आप्लावित
तुम्हारा बदन।"
दु:ख यही है
जवाब देंहटाएंमेरे दृष्टिपथ में
अभी तक तुम नहीं आई।
कहीं ऐसा तो नहीं
कि तुम हो ही नहीं !
नहीं . . . . बहुत सुन्दर अकसर डायरी मे जो होता है उसे हम ज़िन्दगी मे ढूँढते रहते हैं। अच्छी रचना के लिये साधुवाद्
साहब !
जवाब देंहटाएं'' कल्पना में आप पहले 'तुम' बनाते हैं ..
स्फटिक - अक्षर से फिर उनको सजाते हैं ..
और जब वह तुम नहीं मिलती तो ,
क्यों भला अफ़सोस करते हैं ?
और अंतिम में मन क्यों खिसियाता है ,
'तुम तो मेरी कल्पना हो ' ...
.
.
धत्त तेरे की , मैं भी बुद्धू हूँ ... 'बुद्धि से क्या प्रेम होता है ?' ''
............ आभार ,,,
एक अल्प जिज्ञासा है ,फिर वह तन्वंगी श्यामा क्यूकर हुयी ?
जवाब देंहटाएंवाह वाह. येसुदास के गाये दो गीतों के बोल याद आ गए:
जवाब देंहटाएं१. ऐसा वादन कि कृष्ण का मंदिर दिखाई दे
२. जिसकी रचना इतनी सुन्दर, वो कितना सुन्दर होगा
एक बार फिर से, वाह वाह!
जवाब देंहटाएं@ यह उस दौर की है जब मुंशी की लोपामुद्रा से लेकर कृष्णावतार शृंखला पढ़ रहा था। मुंशी ने आर्यों और कृष्ण के जीवन में 'श्रद्धा' की महत्ता को उस ऊँचाई तक पहुँचा दिया है जहाँ कोई और नहीं जा सकता... यह कविता उस समय की मनोदशा को व्यक्त करती है। ..
जवाब देंहटाएंश्रद्धा नाम की कोई बाला नहीं थी।
:)
दु:ख यही है
जवाब देंहटाएंमेरे दृष्टिपथ में
अभी तक तुम नहीं आई।
कहीं ऐसा तो नहीं
कि तुम हो ही नहीं !
नहीं . . . .
पर मेरी कल्पना तो है -
"तुम्हारा बदन
स्फटिक के अक्षरों में लिखी ऋचा
प्रात की किरणों से आप्लावित
तुम्हारा बदन।"
ऐसी कल्पना ही क्यूँ करते हैं आप, जो दृष्टिपथ में आये ही ना..!
ये तो वही बात हुई ..चाँदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल...ऐसी रूप बाला कहा मिलेगी भला..!!
ये तो थी ठिठोली....
लेकिन कविता अद्वितीय...काव्य संरचना में आपका सानी ही कौन रखता है भला..!!
कवि की कल्पना भी बहुत सुंदर है,पता नही क्या क्या सपने दिखा देती है, मन को कहां कहां ले जाती है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी
धन्यवाद
गिरिजेश जी ,
जवाब देंहटाएंडायरी में जब ये कल्पना इतने वर्षों से है तो कहीं न कहीं मन के कोने में भी उसका अस्तित्व तो है और जब मन के कोने में है तो न होने का सवाल ही नहीं .....!१
रहीं त्रिवेणी की बात .....तो वे अपने आप में पूर्ण ही हैं ....तीसरी पंक्ति ही ऊपर की दोनों पंक्तियों की पूरक है ....एक बार गहरे में उतर के तो देखिये .....!!
(@कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम हो ही नहीं !)
जवाब देंहटाएंहम अपनी स्थूल खुरदरी दुनिया से बाहर जाकर इस संशयात्मक `बदन' को देखने समझने की कोशिश करने में नितान्त असफल सिद्ध हुए जा रहे हैं। क्षमायचना सहित... :)
कल्पना करना भी सबके बूते का काम नहीं है। :(
बहुत सुंदर!
जवाब देंहटाएंतुम आई नहीं पर कल्पना तो है .....
जवाब देंहटाएंऋचाओं सी कल्पनाएँ सिर्फ कल्पनाएँ ही हो सकती हैं ....हो तो सकती ही नहीं ....:)
"कल्पने ! तूँ भी भली बनी "
जवाब देंहटाएंइसे कहीं कोट करने के लिये रख लिया है ।
वाह! अद्भुत!
जवाब देंहटाएंकल्पना जब तक कल्पना रहे तब तक उसका जवाब नहीं... वास्तविकता से मिलने पर वो बात नहीं रह जाती शायद :)
जवाब देंहटाएंशानदार कविता !