... तो जब शाम होगी, थकन ढलान होगी
खोलूँगा वह पीला पड़ा कागज।
जिसे कहती थी तुम पहला प्रेमपत्र
जिसके नीचे लिखा अनाम सादर।
बारह बरस पुरानी स्कॉच
जिसकी रंगत समेट रहा होगा दुकान
बूढ़ा एक सूरज नशे से परेशान
हाथ हिला उसे करूँगा सलाम।
ढोते बढ़ती उम्र के सामान
रोज थोड़ा थोड़ा खुश होने से है बेहतर
दुख की झिरझिरी लूँ समेट सह
खत पढ़ते हो लूँ तर
आँखों से सादर।
होठों के बादर
उमड़ें थर थर
थोड़ा लूँ बरस
बारह बरस!
रखे रहने से नशा बढ़ता ही रहता है इनका।
जवाब देंहटाएंबारह बरस पुरानी आँखों की बाटल में आंसुओं की शैम्पेन... नशा था या ज़हर.. या शायद हेमलौक!!
जवाब देंहटाएंपुराने पीले पड़े खतों का नशा ऐसा ही होता है!!
खत पढ़ते हो लूँ तर
जवाब देंहटाएंआँखों से सादर।
होठों के बादर
उमड़ें थर थर
थोड़ा लूँ बरस
बारह बरस!
"थोड़ा लूँ बरस, बारह बरस!" यमक है? आजकल कहाँ पढने को मिलता है ऐसा अलंकृत काव्य! बधाई हो!
मोहक! अत्यंत मोहक!
जवाब देंहटाएंसादर! :)