अनजाने ही छ्न्द गढ़ गये चर्चा मीठी मीठी
बहा पसीना रोटी भीगी तपती रही अंगीठी।
जोर हाथ के बेलन घूमे चौकी खटपट सीखी
ताल दे रही चूड़ी खनखन जिह्वा नाचे भूखी।
चटनी चटक दाल है सरपट महक मधुर तरकारी
उड़ती भाप भात को साजे अंगुलियाँ सहकारी।
भाग गया बाबा का गुस्सा आये निपट अनूठे
आग पेट की केवल सच्ची और भाव सब झूठे।
आग पेट की केवल सच्ची और भाव सब झूठे।
जवाब देंहटाएं...वाह!
रोटी छंद,
जवाब देंहटाएंजीवन बंध..
बेहतरीन !
जवाब देंहटाएंकितने कोमल भाव आपके, दृश्य ये कितना सुन्दर,
जवाब देंहटाएंअन्नपूर्णा प्रकट हो गयीं, इन छंदों के अंदर!
अच्छा रोटी छंद है
जवाब देंहटाएंwaah waah - bahut badhiya
जवाब देंहटाएंआपके भोजन-छन्द का रस लेने के लिए गाँव जाना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंमहानगरीय जीवनशैली में तो यही छन्द साकार हो पा रहा है-
अंगीठी की आँच अब कहाँ अब तो गैस-सिलिन्डर
लौना-लकड़ी मिट्टी-चूल्हा अब है कठिन बवन्डर
ओटीजी - ओवन से भी आगे है अब इन्डक्शन
बटन दबाओ, नॉब घुमाओ समझो इनके फंक्शन
ऊर्जा संरक्षण की बातें अब हैं बहुत जरूरी
ईंधन पर धन बहुत लुट रहा ये सबकी मजबूरी।
तोहरो टोला आ हमरो टोला दुन्नू जगहि बिजली गुल्ल बा! जब हइये नइखे त का खरची आ का बचत? अबहिन त गाँव जवार में चुल्हिये के राग चली।
हटाएंहाँ, छन्द बहुत भले बन पड़े हैं। :) धन्यवाद।
बहुत सुन्दर सच्चाई के शब्दों से घड़े छंद
जवाब देंहटाएंकितनी सुंदर रचना.... वाह!
जवाब देंहटाएंसादर बधाई
वाह! :)
जवाब देंहटाएंइसे तो पहिले ही मोबाइल पर 'मो बा के' पढ़ लिये थे, आज फिर पढ़ लिये :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना.... वाह!
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