शुक्रवार, 1 जून 2012

भोजन छ्न्द :)



अनजाने ही छ्न्द गढ़ गये चर्चा मीठी मीठी
बहा पसीना रोटी भीगी तपती रही अंगीठी।

जोर हाथ के बेलन घूमे चौकी खटपट सीखी
ताल दे रही चूड़ी खनखन जिह्वा नाचे भूखी।

चटनी चटक दाल है सरपट महक मधुर तरकारी
उड़ती भाप भात को साजे अंगुलियाँ सहकारी।

भाग गया बाबा का गुस्सा आये निपट अनूठे
आग पेट की केवल सच्ची और भाव सब झूठे।  
   

13 टिप्‍पणियां:

  1. कितने कोमल भाव आपके, दृश्य ये कितना सुन्दर,
    अन्नपूर्णा प्रकट हो गयीं, इन छंदों के अंदर!

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  2. आपके भोजन-छन्द का रस लेने के लिए गाँव जाना पड़ेगा।
    महानगरीय जीवनशैली में तो यही छन्द साकार हो पा रहा है-

    अंगीठी की आँच अब कहाँ अब तो गैस-सिलिन्डर
    लौना-लकड़ी मिट्टी-चूल्हा अब है कठिन बवन्डर

    ओटीजी - ओवन से भी आगे है अब इन्डक्शन
    बटन दबाओ, नॉब घुमाओ समझो इनके फंक्शन

    ऊर्जा संरक्षण की बातें अब हैं बहुत जरूरी
    ईंधन पर धन बहुत लुट रहा ये सबकी मजबूरी।

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    1. तोहरो टोला आ हमरो टोला दुन्नू जगहि बिजली गुल्ल बा! जब हइये नइखे त का खरची आ का बचत? अबहिन त गाँव जवार में चुल्हिये के राग चली।

      हाँ, छन्द बहुत भले बन पड़े हैं। :) धन्यवाद।

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  3. बहुत सुन्दर सच्चाई के शब्दों से घड़े छंद

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  4. इसे तो पहिले ही मोबाइल पर 'मो बा के' पढ़ लिये थे, आज फिर पढ़ लिये :)

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