न रो बेटी
माँ की डाँट पर न रो ।
वह चाहती है कि
वयस्क हो कर तुम
उस जैसी नारी नहीं
अपने पापा जैसी 'मनुष्य' बनो
(उसे मनुष्य और नारी के फर्क की समझ है) ।
लेकिन उसकी यह भी कामना है:
कि सहलाएँगे तुम्हारे बोल
कराहते तुम्हारे सहचर को।
अपने बच्चे को तुम लोरी सुना कर सुलाओगी।
ज्वर से तपते मस्तकों पर
झरते तुम्हारे आँसू ताप हरेंगे ।
वह धरा पर आदि नारी की प्रतिनिधि है।
संक्षेप में कहूँ तो
उसे डर है
(आदिम है कि नहीं? नहीं पता)
कहीं
मनुष्य होने की प्रक्रिया में
तुम्हारे भीतर की नारी न समाप्त हो जाय !
तुम्हारे आँचल में वह दूध
और आँखों में पानी भी चाहती है -
ये न रहे तो मनुष्यता कैसे जीवित रह पाएगी?
अपने डर का तनाव
वह तुम तक पहुँचाती है
डाँटती है
न रो बेटी ।
माँ समझती है
समझाती है
कि
यात्रा लम्बी और कष्टकारी है,
मनुष्य और नारी के बीच भारी है
नासमझी -
जाने तुम कैसे डाँटोगी
अपनी बेटी को ?
क्या उसकी आवश्यकता भी होगी ?
तुम्हारे मनुष्य
(नर का पर्यायवाची)
पापा
इन प्रश्नों से ही जूझते रहते हैं।
चुप रहते हैं
तुम्हें दुलराते रहते हैं ।
सच यह है कि
प्रश्नों के आगे
अपनी विवशता
को भुलवाते हैं।
प्यार भुलवना भी होता है बेटी !
न रो
माँ की डाँट पर न रो !
सुंदर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंwaah sundar rachna
जवाब देंहटाएंएक सुंदर भावपूर्ण रचना...बधाई
जवाब देंहटाएंपिता के मन के भावों को उकेरती अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना!!
जवाब देंहटाएंनारी है तो माँ की डाँट स्वाभाविक है और स्वाभाविक है उसका रोना व पिता का चुप कराना भी...।
जवाब देंहटाएंओह, ऐसी विडम्बना स्वाभाविक हो गयी!!
बहुत बेह्तरीन रचना!!
जवाब देंहटाएंप्यार भुलवना भी होता है बेटी !
न रो
माँ की डाँट पर न रो !
वैसे भी माना जाता है ( शायद गलत भी हो ) कि बेटियां और पिता आपस में एक दूसरे से ज्यादा लगाव रखते हैं, स्नेह रखते हैं और बेटी के मुकाबले बेटे के प्रति पिता थोडा कठोर रहते हैं।
जवाब देंहटाएंवही हाल मां और बेटे के बीच रहता है, वह भी बेटी के बजाय बेटे से ज्यादा लगाव रखती है....ज्यादा स्नेह रखती हैं।
यह कविता मुझे कुछ कुछ वही भाव लिए हुए लग रही है।
.
जवाब देंहटाएं.
.
एक बेटी का पिता हूँ,
इस स्थिति से अक्सर दोचार होना पड़ता है।
सुन्दर, गहरे अर्थ लिये, भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
bahut sundar
जवाब देंहटाएंabhivyakti
ek beti ka dar ma or phir bap samj sakta he
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंघोर आश्चर्य किसी नारी का अब तक कोई कमेन्ट नहीं -आखिर कर क्या रही हैं ये लोग ..एक कमेन्ट तक नहीं दे सकती तो .......
जवाब देंहटाएं...और कोई अपेक्षा रखना ही बेकार है ..हुंह ! !
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
@ आदरणीय अरविन्द मिश्र जी,
"घोर आश्चर्य किसी नारी का अब तक कोई कमेन्ट नहीं -आखिर कर क्या रही हैं ये लोग ..एक कमेन्ट तक नहीं दे सकती तो" .......
..."और कोई अपेक्षा रखना ही बेकार है ..हुंह ! !"
जाने दीजिये देव, क्यों ऐसे 'अप्रिय सत्य' उजागर करते हैं ?... बुद्धिमान लोग बर्र के छत्ते में हाथ नहीं डाला करते... और वो भी जान-बूझकर !
माँ को सब चाहते हैं पर पता नहीं क्या हो जाता है जब नारी के प्रति सामाजिक भाव की अभिव्यक्ति होती है ।
जवाब देंहटाएंwaah..........kya baat hai...........badi gahri baat kah di aur sikh bhi de di...........bahut hi sundar prastuti.
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति!बहुत सुन्दर रचना!!
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना है! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति! माँ को भी अपने नारीत्व के अभिमान की मात्रा थोड़ी बढानी पड़ेगी ताकि बेटी को डांटने की बात मन से पूर्णतया निकल जाए.
जवाब देंहटाएंजाने तुम कैसे डाँटोगी
जवाब देंहटाएंअपनी बेटी को ?
क्या उसकी आवश्यकता भी होगी?
अति सुन्दर! वह समय अभी है यहीं है. आगे बनाए रखना हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारी है.
@ उसे डर है
जवाब देंहटाएं(आदिम है कि नहीं? नहीं पता)
कहीं
मनुष्य होने की प्रक्रिया में
तुम्हारे भीतर की नारी न समाप्त हो जाय !
नए ज़माने में भीतर बढ़ते भय के साथ माँ के अंतर्द्वंद्व को प्रकट कर रही है कुछ पंक्तियाँ ...
मन को छु गई आप की यह रचना, काश सभी मांये ऎसा ही चाहे, अदभुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंbahut sundar aur arthpoorn hai kvita .
जवाब देंहटाएंsamy ke sath sath maa beti aur pita beti ke aapsi savado me bhi bdlav aaya hai .aur isko aapne bahut khubsurti se abhivykt kiya hai.
आधुनिक परिवेश में और भी कठिन हो चुके नारी के द्वन्द को अभिव्यक्त करती कविता के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआई.एम्.ई. से टाइप किया था, आदत न होने से कुछ त्रुटियाँ हो गयीं टिप्पणी यही है---
जवाब देंहटाएं"उसे डर है
(आदिम है कि नहीं? नहीं पता)
कहीं
मनुष्य होने की प्रक्रिया में
तुम्हारे भीतर की नारी न समाप्त हो जाय !"
माँ का ये डर स्वाभाविक है. सभी माँओं को होता है. माँ के अंतर्द्वंद्व को खूबसूरती से उभारा है.
कभी-कभी लगता है कि मनुष्य होने और नारी होने में कोई फर्क न होता तो कितना अच्छा होता, शेष नारी-पुरुष का अंतर तो शाश्वत है, सत्य है. ये न कभी मिटेगा, न समाप्त होगा. नारी विकास के किसी भी स्तर तक पहुँच जाए उसका नारीत्व समाप्त नहीं हो सकता. समाप्त तो वो परिस्थितयां होनी चाहिए, जिसके कारण नारी को अपना नारीत्व बोझ लगने लगता है... खैर बात इतनी सीधी भी नहीं...
इस पर कमेन्ट नहीं... ज्यादा पर्सनल बात लिख जाऊँगा.
जवाब देंहटाएं