साँझ आम सड़क सिगरेट
अचानक तुम ?
धुआँ गुबार दफन भीतर
लरजते आँसू रोक
तुम्हारी देह गंध
हवा में जोहता रहा
तुम दूर
बिना मुड़ कर देखे
(कहा नहीं जा रहा)
यूँ चली गई !
बस देखता रहा
कारे केश -
आग बुझी राख गिरी
कड़वाहट उतराई
याद आया वह दिन
जब पी थी
पहली सिगरेट ।
हूँ दीवाना
अकेले में अंगुलियों के पोर जोड़
होठों पर रखता हूँ
वह ...तुम्हारे अधरों का स्पर्श
कहां ?
कितनी दफे वर्कशॉप जाते
अपनी खाकी को भिगो
सूँघा है
कि गंध मिल जाय तुम्हारी
कहाँ... वह ऊष्मा कहाँ !
दिन की जीवन लहरियां
अब काठ हैं - तुम जो नहीं हो
जिन्दगी अब गन्धहीन है...
मेरे कमरे के बाहर
रातरानी सूख चली है -
माली कहता है
अब की गरमी
क्या लू चली है
यूं ही भटकता हूँ
साँझ आम सड़क सिगरेट ।
... सिगरेट सिगरेट
छल्ले धुआँ धुआँ...
यह तो किसी जोजनगंधा के तलाश की अकुलाहट है !
जवाब देंहटाएंसहेजी हुई यादें .... यादें तो जला ही रही हैं और सिगरेट और भी जला रही है..हांलांकि शायद ये महसूस होता हो कि सुकून मिल रहा है....एह्साओं को खूबसूरती से लिखा है..
जवाब देंहटाएंमैं तो सोच रहा था,अंत तक आप अपनी फ़िक्र को धुएं में उड़ा देंगे....
जवाब देंहटाएंआप अपनी फ़िक्र को इस सिगरेट धुएं में उड़ा देंगे..... ओर एक दिन...वेचेनी लिये है आप की यह रचना कुछ तलाश रही हो जेसे...
जवाब देंहटाएंइतनी उदासी काहे
जवाब देंहटाएंगंध भी कभी खोती है !!
वही होती है आस- पास ..
सिगरेट के पैकेट पर लिखी वैधानिक चेतावनी भी पढ़े ...
आपकी यह कविता बहुत पसंद आई है...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद..
चलिए सिगरेट सुलगाते हैं...
जवाब देंहटाएंमाचिस है...
bahut khub
जवाब देंहटाएंफिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
मैने तो सिगरेट आज तक नहीं पी...।
जवाब देंहटाएंबेचारा मैं...।
न गन्ध, न छल्ला...। :(
कहाँ कहाँ से क्या-क्या इकट्ठा समो कर रख देते हैं...बहाना कविताई है ! आपकी तो कहनी (कहने की आदत) बन आयी है !
जवाब देंहटाएंदुबार तिबारा इस कविता को पढने के बाद जब चौथी बार आया तो सोचा कि नमन करता चलूँ ... बस आपकी कवितायेँ ऐसे ही नित नये खोज करती रहें.. वैसे ब्लॉग का नाम होना चाहिये था कविता और कवि, दोनों का एक्सप्लोरेशन
जवाब देंहटाएंयही है वह आदिम गन्ध ..
जवाब देंहटाएंदेर से पढ़ रहा हूँ माफी चाहता हूँ ।