दो दिनों के अखबार
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सब
बिस्तर पर इकठ्ठे हैं
तुम जो नहीं हो !
यह इकठ्ठा होना
इतने बिलग तत्वों का
तुम्हारी अनुपस्थिति को
सान्द्र करता है।
बताता है
बिन घरनी
घर प्रेत का डेरा
प्रेत भी कैसा !
एक कमरे में कैद
अव्यवस्थित
कैसा समय
कविता भी साथ छोड़ गई है !
कविता भी साथ छोड़ गई है!
जवाब देंहटाएंऐ मेरे उदास मन...
विरह का सटीक वर्णन किया है...
जवाब देंहटाएंहा हा हा ! बहुत आदत बिगड़ी हुई है भाई ।
जवाब देंहटाएंकविता साथ नहीं छोड़ती .. वही कहीं सामानों के बीच होगी.
जवाब देंहटाएंऔर फिर यह कविता तो बहुत सुन्दर है
विरह का खूबसूरत चित्रण.
जवाब देंहटाएंकविता की इतनी हिम्मत कि वो साथ छोड़ जाए....ऐसा हो नहीं सकता है जी ...
जवाब देंहटाएंहाँ कभी बेकार सी...कभी फटकार सी, कभी दुलार सी और कभी प्यार सी हो सकती है ...
लेकिन साथ तो वो इस जनम में नहीं छोड़ेगी ....आप चाहें तब भी नहीं....
आज भी जो लिखी है....कविता ही है...सोचने वाली बात.. ये है कि कैसी है...!
हाँ नहीं तो..!!
आईये जानें .... क्या हम मन के गुलाम हैं!
जवाब देंहटाएंwaah bahut dukhi lag rahe ho sir...chinta mat karo kavita wahi kahin hogi man ke panne palto...baakikuch mile na mile kavita mil jaayegi...
जवाब देंहटाएंबताता है
जवाब देंहटाएंबिन घरनी
घर प्रेत का डेरा
प्रेत भी कैसा !
एक कमरे में कैद
अव्यवस्थित
कैसा समय
कविता भी साथ छोड़ गई है !
बहुत सुंदर !!
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंशायद जरूरी नहीं कि हर चीज पर लिखा ही जाय !
जवाब देंहटाएंयह कविता सही नही लगी ।
जवाब देंहटाएंआज तो ....गिटार था ही गाना ही गा देते ...
जवाब देंहटाएंछोड़ गए बालम मोहे हाय अकेला छोड़ गए...वही काफी होता....
और ई जो भन्डा फोड़े हैं कि आप guitarist हैं, उससे अब आपको कौन बचाएगा...कहियेगा ज़रा...
कुछ अपना बजाया हुआ sample डालिए अब..बिना ना-नुकुर किये हुए...
हाँ नहीं तो...!
बिन घरनी
जवाब देंहटाएंघर प्रेत का डेरा
प्रेत भी कैसा !
एक कमरे में कैद
अव्यवस्थित..
प्रेत को सँभालने वाली प्रेतनी शीघ्र घर आबाद करे ...!!
तुम्हारे बिन कैसे रहता हूँ, यह बताने के लिए और भी तरीका था.
जवाब देंहटाएंकविता लिखकर ब्लॉग पढ़ने के लिए फोन करना ..यह तो इमोशनल अत्याचार है. बच्चों की छुट्टी वर्ष में एक बार ही होती है काहे इतना परेशान हैं..ब्लाग तो है ही.
@ अदा जी,
जवाब देंहटाएंमैं गिटारिस्ट तो सारी दुनिया गिटारिस्ट ! :)
ब्रिजों पर बिना अंगुली दबाए बस तंतुओं की ध्वनियों से खेलता हूँ। आनन्द आता है। ऐसे ही देर तक सिंथेसाइजर पर बजाता रहता हूँ - ऐसे गीत जिनका कोई सिर पैर नहीं - बस बह रहे यूँ ही, बेपरवा, अनजान, नादान। न सुर का ज्ञान न स्वरों का।
बहुत बार कविता भी मेरे लिए ऐसी हो जाती है - तत्क्षण मूड को अभिव्यक्त करती हुई। :)
ऑडियो डालना है लेकिन एक जोगी के गाए गीत का ... लुप्त होती परम्परा ... सारंगी पर गोपीचन्द जोगी की कहानी ...
@ बेचैन आत्मा
जवाब देंहटाएंजिस दूर देश पंछी गया है वहाँ न बिजली है और न इंटरनेट :)
गरमी से परेशाँ है।
आप सहजता से लिख, सहेज सकते हैं इन असहज क्षणों को !
जवाब देंहटाएंलिख डाला ।
गज़ब है प्रभु....
जवाब देंहटाएंलगता है वाकई कविता साथ छोड़ गई है...
मन बिस्तर से हटा कहीं और लगा दीजिये कविता आ जायेगी ।
जवाब देंहटाएंham to abhi to aasmaan me swachhand ghoom rahe hai ...kewal tippani hi padh aur bhej paa rahe hai ,,,,,( kambhakt mobile waale itnai hi suvidha de rahe hai) ,,,achhe bhale agar jameen par utare to aapki rachna fir se padhne ka prayaas karenge ,,,tippani bhi tabhi bhej paayenge,,,,abhi lag raha hai ki aapki rachna me kuchh to khaas hai ....????????////
जवाब देंहटाएंतो गोपीचंद जोगी की कहानी कब दाल रहे हैं?
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बहुत खुशकिस्मत हैं आपकी श्रीमती जी, आप इतना मिस जो करते हैं...एक हम हैं ऐसे मौकों पर सोचते हैं... यह हुई न बात!... काम की हर चीज अपने ही सा्थ बिस्तर पर रखने का मौका मिला है... सो इन्जॉय!
आभार!
मुझे तो लगता है ऐसे समय कविता ही साथ
जवाब देंहटाएंकविता फिर आयेगी।
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