बुधवार, 23 जून 2010

पार्क में नीम

पार्क में एक नीम थी
किशोरावस्था में। 
बढ़ रही थी - 
तिताई को साध रही थी। 


पार्क की भराई के दौरान 
किसी ने रोका टोका नहीं 
इसलिए ठीकेदार ने 
बलुई मिट्टी भर दी थी। 


उसका तर्क था
बहुत दिनों से इस खुली ज़मीन पर
लोग हग रहे थे - खाद ही खाद 
पौधे ज़िन्दगी सूँघ खुद गहरे धँस जाएँगे। 


उसका बेहूदा तर्क कृत्रिम था
न नीम को पसन्द न प्रकृति को 
गहरे धँसने की बजाय नीम ने
जड़ों को फैलाया उथली बलुई मिट्टी में। 


जाने कहाँ से खुराक मिली पानी मिला
नीम  बढ़ती गई - भारी होती गई
हवाओं को यह पसन्द न आया
ज़ोर ज़ोर से बहने लगीं। 


एक दिन नीम ढह पड़ी ।
कुछ दयावानों ने उसे उठाया 
कि सहारा दे ठीक कर दें -
उथली जड़ नीम उखड़ गई । 


भौंचक्के से अपराधी से
दयावानों ने कर्मकाण्ड पूरे किए  
 गढ्ढा खोदा उस स्तर तक 
जहाँ मल पूरित पोषक मिट्टी थी। 


सहारा दे नीम को खड़ा किया
थुन्नी बाँधा , पानी दिया 
रोप दिया - पुन:
पुण्य कमाया । 


जाते जाते मुँह में एक ने पत्ते डाल लिए
यूँ ही - थु: कितनी कड़वी है ! 
एक मैं भी था दयावानों में 
देखा कि पार्क में सभी पौधे थे यथावत। 


उनके पत्ते कड़वे नहीं थे
पोषक धरती तक पहुँचती 
- उनकी जड़ें गहरी थीं ।
तभी तो नहीं गिरे !  


मैं सोचता वापस आया
जब जड़ों में दम न था
तो नीम इतनी बढ़ी क्यों?
कैसे ?
कड़वे पत्ते वाली नीम ही क्यों बढ़ी इतनी ?

यह कविता नहीं - कई प्रश्न हैं
एक साथ ।
भीतर मेरे मुँह के लार में
घुल रही है कड़वाहट ।


ठीक वैसी ही, जैसी घुलने लगती है 
दिमाग में तब,  जब मैं 
किसी को 'अच्छी सीख' देता हूँ ।
या  किसी से 'अच्छी सीख' लेता हूँ। 
उखड़ने और कड़वाहट घुलने में
क्या कोई सम्बन्ध है? 
मैं क्यों लेता देता हूँ? 


इन पंक्तियों को सोचते
उस नीम के पास खड़ा हूँ।
किसी ने फिर पानी नहीं डाला
(शायद यह पुण्य पर पानी डालना होता इसलिए) ।


पत्तियाँ मुरझा गई हैं।
नीम सूख रही है
धूप दिन ब दिन तेजस्वी है।
सूखती नीम ठूँठ सहारे खड़ी है।


कर्मकाण्ड सी निर्जीव हो चली है ।
मुझे बारिश की प्रतीक्षा है -
जो हो जाय तो मुझ पर पड़े 'घड़ों पानी'
नीम में शायद फिर अंकुर फूटें । 


कल से रोज़ आऊँगा 
उसे 'अच्छी बात' सुनाऊँगा
मिट्टी कैसी भी हो 
स्वभाव जैसे भी हों
बचते वही हैं 
जो गहरे धँसते हैं
जो उथले फैलते नहीं हैं। 


हवाओं का क्या ? 
वे तो बस बहना जानती हैं। 

11 टिप्‍पणियां:

  1. मिट्टी कैसी भी हो
    स्वभाव जैसे भी हों
    बचते वही हैं
    जो गहरे धँसते हैं
    जो उथले फैलते नहीं हैं।

    गज़ब की बात, जीवन का सार - चंद शब्दों में! कई फैशनेबल सवालों का जवाब छिपा है इन पंक्तियों में (जैसे - अच्छों के साथ बुरा क्यों होता है?)

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  2. मिट्टी कैसी भी हो
    स्वभाव जैसे भी हों
    बचते वही हैं
    जो गहरे धँसते हैं
    जो उथले फैलते नहीं हैं।

    पूरी रचना में गहरे फलसफे को बताया है...सच है किहर सोच में गहराई ज़रूरी है...प्रेरणादायक रचना....

    आपका आभार व्यक्त करना चाहती हूँ..आपने मेरी रचनाएँ पढ़ीं...और सुधार के लिए पुन: शुक्रिया .

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  3. पानी खीचने का काम तो जड़ें ही करती हैं । पानी वही, हवा वही, धूप वही । ना जाने किसने एक को कड़वा व दूसरे को मीठा बना दिया ।

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  4. मिट्टी कैसी भी हो
    स्वभाव जैसे भी हों
    बचते वही हैं
    जो गहरे धँसते हैं
    जो उथले फैलते नहीं हैं.....
    क्या बात है ....

    कडवे पत्तों वाली नीम ही क्यों बढ़ी इतनी ...
    पता नहीं आपको ...ज्यादा मीठे में कीड़े जल्दी लगते हैं ....नीम कडवी होकर भी दूसरों के सब दुःख दर्द हर लेती है ...

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  5. या दूसरों का जहर पीती है इसलिए कडवी है ...!!

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  6. हवा सचमुच बहती है, पर अपने साथ लाई हुई गंध से तन मन भी भिगोती जाती है।
    ---------
    क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
    अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।

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  7. बचते वही हैं
    जो गहरे धँसते हैं
    जो उथले फैलते नहीं हैं।
    सार्थक ,प्रेरक कविता धन्यवाद्

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  8. नीम को मुगालता रहता होगा की उसे कौन उखाड़ेगा ?
    कुछ समझा कुछ समझ रहा हूँ ...

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  9. ये 'पेंड प्रेम' की ही उपज है और मुझे लग रहा है कि सच में कविता नहीं सच है. कुरुक्षेत्र में उखाड़ते रहिये :)

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  10. लगता है आप पार्क में काफी वक्त बिताते हैं.....कई पोस्टें पार्क से संबंधित हैं :)

    सुंदर भाव।

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  11. मेरे ख्याल से तो नीम पुल्लिंग है ... बाकी तो सब ठीक है ।

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