गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

लिखा कागद कोरा

मौन ही रहे हम तुम, कहना औपचारिकता है
बता देती हैं साँसों का स्पर्श कर आती हवाएँ।

समाज कहता है परिणय कैसा जिस पर उसकी मुहर नहीं
साँसों में बसे खुले उड़ते कपूर, जलने जलाने वाले क्या जानें?

दूरियाँ जमीन की, बात की, मुलाकात की, याद की
उनकी क्या चिंता जिन्हें न तुमने सोचा और न मैंने।

मेघ बरस कर चले गए और बूँदें दूब पर अटकी हैं
अब नहीं गिरेंगी आँखों से, उड़ जाने की प्रतीक्षा है।

कभी चुप सी सन्ध्या में घर के एकांत कोने में
मेरे लिए दिया जला देना, फेसबुक पर अन्धेरा है।

आज तक न तुमने ढूँढ़ा और न मैंने
न कहना हम ग़ायब ही कब हुए थे?

जाने कैसी लहर उठी है इतने वर्षों के बाद
भूकम्प नहीं झील में सुनामी उफन आई है।

रोज लिखता हूँ जाने कितने पन्नों की लम्बाई है
बिन बदरी बरसात में कागज कोरा ही रहता है।

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह वाह....एकदम खांटी अंदाज है यार।

    लेकिन एक बात है।

    इस प्रेम प्रेमावली के चक्कर में पर्यावरण का भी ध्यान रखो। ये क्या कि - रोज लिखता हूँ जाने कितने पन्नों की लम्बाई है।

    न जाने कितने पेड़ कट गये बंधु :)

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  2. मेघ बरस गए और दूब के पत्तों पर अटकी हैं
    बूँदे नहीं गिरेंगी आँखों से, उड़ जाने की प्रतीक्षा है।

    कभी चुप सी सन्ध्या में घर के एकांत कोने में
    मेरे लिए दिया जला देना, फेसबुक पर अन्धेरा है।

    इन पंक्तियों ने तो मन मोह लिया। बहुत मस्त।

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  3. रोज लिखता हूँ जाने कितने पन्नों की लम्बाई है
    बिन बदरी बरसात में कागज कोरा ही रहता है।
    सही कहा बिन बदरी बरसात के कागज़ कोरे ही रह जाते हैं…………एक सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  4. इस एकान्तीय गहरेपन की रातें बहुत सालती हैं, मन को।

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  5. @ दूब के 'पत्तों' ..
    --- आप द्वारा ऐसे प्रयोग ? क्षम्य नहीं , प्रेमाचार्य !

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  6. @ अमरेन्द्र जी
    ये हुई न बात! रचते एक क्षण को खटका था लेकिन किसी और ही मन:स्थिति और समय में था ;)

    धन्यवाद आचार्यप्रवर। ठीक कर देता हूँ।

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  7. मेघ बरस कर चले गए और बूँदें दूब पर अटकी हैं
    अब नहीं गिरेंगी आँखों से, उड़ जाने की प्रतीक्षा है।...

    गज़ब...

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  8. वाह फेसबुक पर अँधेरा हो गया.................कविसृष्टि है

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  9. होंठ ने बांस की बांसुरी पर लिखा
    गंध ने पुष्प की पांखुरी पर लिखा
    कल वही गीत तुमसे मिलकर नयन
    सांस ने देह की देहरी पर लिखा.

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  10. मुझे चौथी वाली पसंद आई. कौन सी चौथी के चक्कर में मत पढियेगा... ऊपर से चौथी वाली.

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  11. मत कहिये झील इस शब्द से भी अब वितृष्णा हो आई !

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