गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

पुरानी डायरी से - 20: सुलगन

लवलीन प्राण की दीपशिखा, निकली जिससे संघर्ष ज्योति
जिस पर आधारित टिकी टिकी, सुख दुख की उत्कर्ष ज्योति।
है जीवन की झंकार यही
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है जीवन की टंकार यही
तिमिर घटा के बादलों से
रवि रश्मि तू ही ओज ले ले
निराश मनों के घायलों से
तू सिहरनों की खोज ले ले।

है जीवन की चीत्कार यही
है जीवन की फुफकार यही
बुझी बुझी सी राख से भी
जा वह्नि का तू तेज ले ले
पुष्प गर्विता साख से भी
जा कंटकों की सेज ले ले।
लज्जा को भी तू लजा दे
ताण्डव की आवाज सजा दे
घंट घंट में फैले भंड
स्वर विकराल से तू लजा दे।

है जीवन की धिक्कार यही
है जीवन की हुँक्कार यही
तू राह विकल में भगता है
रैन की तू चैन ढहा दे
पावक में भी आग लगा दे
शावक में भी सिंह जगा दे।

हे शांति की कायरता वाले, अशांति का तू अलख जगा दे
विद्रोह कर पुंसत्व जगा दे, अपने अंतर के गह्वर में। 
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यह कविता किसी खास के अनुरोध पर प्रस्तुत की गई है। डायरी में इस कविता के लिए कोई समय या दिनांक अंकित नहीं लेकिन वैचारिक बिखराव, शब्द चयन में बचपने, दूसरे कवियों के प्रभाव और स्मृति के आधार पर यह कह सकता हूँ कि इसे ग्यारहवीं या बारहवीं में रचा गया होगा।
कैसा था वह समय! आह!!... किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, जीना इसी का नाम है।
...कभी सोचा नहीं था कि डायरी बची रहेगी और आज इस तरह से पूरे संसार के सामने यह कविता प्रस्तुत होगी। छोटी छोटी अकिंचन सी बातें भी कभी कभी...    

7 टिप्‍पणियां:

  1. 'लवलीन प्राण की दीपशिखा'
    'विद्रोह कर पुंसत्व जगा दे, अपने अंतर के गह्वर में।'

    ऐसा,ग्यारहवीं में?
    वाहवाही करूँ या साधुवाद? :)

    'बुझी बुझी सी राख से भी
    जा वह्नि का तू तेज ले ले
    पुष्प गर्विता साख से भी
    जा कंटकों की सेज ले ले। '

    इनके बाद तो पूरा पढना ही था।

    इस कविता के लिए (लिखने और पोस्ट करने दोनों के लिए) आप का आभार।

    लिखावट कुछ ज्यादा ही अच्छी है। :)

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  2. @कैसा था वह समय! आह!!... किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार

    और उस समय एक कवि का जन्म हो रहा होगा. आह !! धीरे धीरे ही सही सब _विताएं सामने आएँगी.

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  3. @ अविनाश जी,
    आप की उदारता है वरना मुझे इस कविता में छायावादी कवियों की नकल दिखाई देती है। महादेवी वर्मा, दिनकर आदि।
    हाँ मेरी लिखावट अवश्य बहुत सुन्दर थी। यह तो उस जमाने की घसीट है। छठवीं कक्षा तक जी निब और सरकंडे की कलम पर हमलोगों के हाथ सधे थे। अब तो अपनी ही लिखावट देख कर रोना आता है।
    लगता है कि बंगाल में परम्परा अभी भी सुरक्षित है। मैंने किसी बंगाली की लिखावट भद्दी नहीं देखी।

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  4. पता नहीं क्यों, शब्द चयन के बचपने और विचारों का बहकना कभी कभी वहाँ तक ले जाते हैं जहाँ सधे सधाये लेख नहीं पहँच पाते हैं।

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  5. कविता के बचपने की रचना से परिचय कराने के लिए धन्यवाद.

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  6. किसी खास के अनुरोध पर ....! अनुरोध करने की संभावना तलाश रहा हूँ...। वही होगा जिसने उस समय इसे पढ़ा होगा...। मतलब बाल सखा या सखे...जैसे मनु की उर्मी ? ...छोड़िए जाने दीजिए..मुझे इससे क्या।
    उस अवस्था में विज्ञान के विद्यार्थी द्वारा हिंदी का इतना अच्छा प्रयोग सचमुच अचंभित कर देता है। यदि आप किसी विद्यालय में हिंदी के अचारज होते तो हिंदी का बड़ा भला होता।

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