सच कहूँ?
मुस्काते भोले लगते हो
कविता कहते बोदे लगते हो -
मैं कैसी लगती हूँ?
मुझे भोला या बोदा नहीं बनना
मुझे कुछ नहीं कहना।
तो क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?
समझ का फेर है।
न समझो वही ठीक है।
क्यों?
समझोगी तो
न कविता होगी और न मुस्कान।
मैं यूँ ही इस उधेड़ बुन में रहूँगा
कि तुम कैसी लगती हो?
और तुम चल दोगी कहते हुए -
बड़े नासमझ हो।
यही नासमझी की समझ, हमें डूबने नहीं देती है।
जवाब देंहटाएंयार ये 'निजमन' वार्तालाप को यहां मत लिखा करो।
जवाब देंहटाएंभाभी जी को पता है क्या ?
:)
कविता मस्त है।
मेरी बाबत निगाहों में सवाल रहने दो
जवाब देंहटाएंबेरंग जिंदगी में कुछ तो गुलाल रहने दो !
इस गोपन संवाद से बहुतों को नयी राह मिलेगी ! काश मुझसे भी कोई पूंछे -इन दिनों सब रुठाये रुढाए हैं !
जवाब देंहटाएंमेरी नासमझी इस समझ से काफ़ी आक्रांत है। कोई मदद करो जी,...
जवाब देंहटाएंचुप रहना ही बेहतर है :)
जवाब देंहटाएंnasamjhi hi achhi hai...
जवाब देंहटाएं:)