शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बड़े नासमझ हो।

सच कहूँ? 
मुस्काते भोले लगते हो 
कविता कहते बोदे लगते हो - 
मैं कैसी लगती हूँ? 

मुझे भोला या बोदा नहीं बनना
मुझे कुछ नहीं कहना। 

तो क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती?

समझ का फेर है।
न समझो वही ठीक है। 

क्यों? 

समझोगी तो 
न कविता होगी और न मुस्कान। 
मैं यूँ ही इस उधेड़ बुन में रहूँगा 
कि तुम कैसी लगती हो? 
और तुम चल दोगी कहते हुए - 
बड़े नासमझ हो। 

   

7 टिप्‍पणियां:

  1. यही नासमझी की समझ, हमें डूबने नहीं देती है।

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  2. यार ये 'निजमन' वार्तालाप को यहां मत लिखा करो।

    भाभी जी को पता है क्या ?

    :)

    कविता मस्त है।

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  3. मेरी बाबत निगाहों में सवाल रहने दो
    बेरंग जिंदगी में कुछ तो गुलाल रहने दो !

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  4. इस गोपन संवाद से बहुतों को नयी राह मिलेगी ! काश मुझसे भी कोई पूंछे -इन दिनों सब रुठाये रुढाए हैं !

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  5. मेरी नासमझी इस समझ से काफ़ी आक्रांत है। कोई मदद करो जी,...

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