साथी हाथ थाम।
भोर के द्वार पर प्राची में दीप है
पसर गया लहलह माँग का सिन्दूर है।
बटुर गया समय,
देह के वितान पर सफेदी भरपूर है।
कल मेंहदी रचाई थी!
साथी हाथ थाम।
धूप भीगी और सूख गई, ढलना है।
हो चुका विस्तार बहुत, सिकुड़ना है।
क्या हुआ जो मुक्ति की राह में,
नाच रहे प्रेत हैं, चलना है।
साथ होना काफी नहीं
साथी हाथ थाम।
ये जो दरक रही है, छत नहीं, हम ही हैं ।
ये जो मौन है, सम्वाद नहीं, हम ही हैं।
ये जो रोटी है, स्वाद नहीं, हम ही हैं।
मेरे भी काँप रहे हैं, तुम्हारे भी काँप रहे हैं।
साथी हाथ थाम।
पूर्णिमा है, ठंड है, एकांत है।
मन के ज्वार फिर भी शांत हैं
बहुत दिन हो गए दाह से सीझे हुए ।
कपोल पर कपोल तो ठीक है
पर साथ स्वेदहीन है
साथी हाथ थाम।
स्वेद हीन साथ -हाऊ अनरोमांटिक
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएं@ अरविन्द जी :)
जवाब देंहटाएंइसीलिए तो हाथ थामने की आवश्यकता है!
कल मेंहदी रचाई थी!
जवाब देंहटाएंसाथी हाथ थाम।
मेहन्दी रचे हाथ ... साथी का साथ ...
सुन्दर .. बहुत सुन्दर
ये जो दरक रही है
जवाब देंहटाएंछत नहीं
हम ही हैं ।
ये जो मौन है
सम्वाद नहीं
हम ही हैं।
यही समझने की जरूरत है....
हो चुका विस्तार बहुत, सिकुड़ना है...
जवाब देंहटाएंबात पते की।
ये जो शब्द हैं
जवाब देंहटाएंये जो बिंब है
ये जो कथ्य है
ये जो तथ्य हैं
ये जो धर्म है
उसका जो मर्म है
वह सब सुलझा दे, समझा दे,
तो मन को आये आराम
साथी हाथ थाम
साथी हाथ थाम,
जवाब देंहटाएंबने न बने काम।
सुना है कल भौजाई आप को डांट रहीं थीं....कहीं ये कविता उसी वजह से तो नहीं न प्रस्फुटित हुई है :)
जवाब देंहटाएंकविता सुंदर है, एकदम सहज प्रवाह लिए हुए।
हाथ थामने की सनसनी सब कुछ बदल देती है.!
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी! सुदर्शन फाकिर की पंक्तियाँ याद आ गयीं:
जवाब देंहटाएंचंद मासूम से पत्तों का लहू है फाकिर [कल]
जिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं। [आज]
@ Satish Pancham
जवाब देंहटाएं:)
@ Abhishek Ojha
You should write your love story. Come on Sir!
How can you say हाथ थामने की सनसनी सब कुछ बदल देती है.!
@ चंद मासूम से पत्तों का लहू है फाकिर [कल]
जवाब देंहटाएंजिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं। [आज]
That is another dimension. Great. Thanks.
'' ये जो दरक रही है
जवाब देंहटाएंछत नहीं
हम ही हैं ।
ये जो मौन है
सम्वाद नहीं
हम ही हैं।
ये जो रोटी है
स्वाद नहीं
हम ही हैं।
मेरे भी काँप रहे हैं
तुम्हारे भी काँप रहे हैं।
साथी हाथ थाम। ''
--- बेजोड़ पंक्तियाँ लगीं ! समझिये मेरे बुझे हुए मन को आपने माहुर खिला दिया ! सहज ही मार डाला , मियाँ ! मियाँ-मल्हार !!
धूप भीगी
जवाब देंहटाएंऔर सूख गई,
ढलना है।
हो चुका विस्तार बहुत
सिकुड़ना है।
क्या हुआ जो
मुक्ति की राह में
नाच रहे प्रेत हैं,
चलना है।
साथ होना काफी नहीं
साथी हाथ थाम।
....जीवन संघर्ष के बाद कवि अब मुक्ति संघर्ष की राह पर चल पड़ा है...जानता है कि यह मार्ग और भी कठिन है मगर हार नहीं मानता..कहता है, अभी तक तो तुम मेरे साथ कदम से कदम मिला कर चल ही रही हो..साथ देती हो..साथ रहती हो..मगर अब मुझे तुम्हारी और भी जरूरत है...साथी हाथ थाम।
साथी हाथ थाम...
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