सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

तनहा शीशम


झड़ता शीशम ओस भीगे 
पत्ते उड़े धूप सहारे 
आँगन मेरा भर गए 
मन चमन कर गए। 

दूर किनारे घर तुम्हारा 
बीच के सब गेह लाँघ 
क्यों मेरी छ्त पसर गए?
मन चमन कर गए। 

बाग तुम्हारे तनहा शीशम 
पतझड़ में ज्यों ठूँठ शीशम 
नेह पल बिखरे शीशम
प्रार्थना हम कर गए
मन चमन कर गए। 

आज भी तनहा है शीशम
आज भी पतझड़ है शीशम  
आज भी ठूँठा है शीशम 
पत्ते सर सर रह गए
आँख भर भर तर गए।

हिमदेश में तुम कह गए  
मन भाव सब बस जम गए। 


10 टिप्‍पणियां:

  1. आज भी तनहा है शीशम
    आज भी पतझड़ है शीशम
    आज भी ठूँठा है शीशम
    पत्ते सर सर रह गए
    आँख भर भर तर गए।

    हिमदेश में तुम कह गए
    मन भाव सब बस जम गए।

    ....सुन्दर !

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  2. दूर किनारे घर तुम्हारा
    बीच के सब गेह लाँघ
    क्यों मेरी छ्त पसर गए?

    मन चमन करना था न! अति सुन्दर!

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  3. कभी कभी कठोर काठवत जैसे भी कितने तनहा हो जाते हैं।

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  4. आज भी तनहा है शीशम
    आज भी पतझड़ है शीशम
    आज भी ठूँठा है शीशम
    पत्ते सर सर रह गए
    आँख भर भर तर गए।
    वक्त किसी को भी नही बख्शता। दिल को छू गयी आपकी रचना। धन्यवाद। कृप्या यहाँ जरूर देखे
    http://veeranchalgatha.blogspot.com/

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  5. तन्हा शीशम जैसी ही इंसान की भी नीयति है ...
    विचारणीय स्थिति ..

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  6. हम वह शीशम नहीं देख पाए थे !
    पर अनुभव कर रहे हैं ! सूखी पत्तियाँ दूर तक उड़ कर गयी हैं ! दूर तक जाने के लिए सूखना जरूरी है , हरे पत्ते तो पेड़ से लगे रहते हैं , उड़ते कहाँ हैं !!

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  7. पत्ते सर सर रह गए
    आँख भर भर तर गए।

    अब और क्या कहूं...

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