झड़ता शीशम ओस भीगे
पत्ते उड़े धूप सहारे
आँगन मेरा भर गए
मन चमन कर गए।
दूर किनारे घर तुम्हारा
बीच के सब गेह लाँघ
क्यों मेरी छ्त पसर गए?
मन चमन कर गए।
बाग तुम्हारे तनहा शीशम
पतझड़ में ज्यों ठूँठ शीशम
नेह पल बिखरे शीशम
प्रार्थना हम कर गए
मन चमन कर गए।
आज भी तनहा है शीशम
आज भी पतझड़ है शीशम
आज भी ठूँठा है शीशम
पत्ते सर सर रह गए
आँख भर भर तर गए।
हिमदेश में तुम कह गए
मन भाव सब बस जम गए।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआज भी तनहा है शीशम
जवाब देंहटाएंआज भी पतझड़ है शीशम
आज भी ठूँठा है शीशम
पत्ते सर सर रह गए
आँख भर भर तर गए।
हिमदेश में तुम कह गए
मन भाव सब बस जम गए।
....सुन्दर !
दूर किनारे घर तुम्हारा
जवाब देंहटाएंबीच के सब गेह लाँघ
क्यों मेरी छ्त पसर गए?
मन चमन करना था न! अति सुन्दर!
कभी कभी कठोर काठवत जैसे भी कितने तनहा हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंआज भी तनहा है शीशम
जवाब देंहटाएंआज भी पतझड़ है शीशम
आज भी ठूँठा है शीशम
पत्ते सर सर रह गए
आँख भर भर तर गए।
वक्त किसी को भी नही बख्शता। दिल को छू गयी आपकी रचना। धन्यवाद। कृप्या यहाँ जरूर देखे
http://veeranchalgatha.blogspot.com/
तन्हा शीशम जैसी ही इंसान की भी नीयति है ...
जवाब देंहटाएंविचारणीय स्थिति ..
हम वह शीशम नहीं देख पाए थे !
जवाब देंहटाएंपर अनुभव कर रहे हैं ! सूखी पत्तियाँ दूर तक उड़ कर गयी हैं ! दूर तक जाने के लिए सूखना जरूरी है , हरे पत्ते तो पेड़ से लगे रहते हैं , उड़ते कहाँ हैं !!
achha laga..........
जवाब देंहटाएंsheesham par bhi likh diya.....jise tiraskrit hi rakha gaya hai.......
भावपूर्ण रचना के लिये बधाई !
जवाब देंहटाएंपत्ते सर सर रह गए
जवाब देंहटाएंआँख भर भर तर गए।
अब और क्या कहूं...