रविवार, 31 अक्टूबर 2010

थोड़ा ठहरने दे

चलेंगे फिर साथी!
थोड़ा ठहरने दे,
मुड़ कर पीछे देख तो लूँ।

बाढ़ वर्षों से रुकी थी
तुम मिले
और बाँध दरका
फिर टूट गया,
बह गया बहुत कुछ।

कीच भरी जमीन पर खड़े हो
टूटन को देखना चाहता हूँ
वह जो बहे जा रहा है
क्या है उसकी पहचान?
क्या परिणति?
क्यों?
कैसे?
कहाँ?
क्या है सार्थकता उसकी?
क्या खोया क्या पाया?
क्या शेष है/रहा? 

थोड़ा ठहरने दे,  
मुड़ कर पीछे देख तो लूँ।