शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

चित्रा का नेह, बिखरे पूजा पुष्प

village_sky 

गाँव का आसमान
वत्सल वत्सल
परदेसी लाल आया है! 
 chitra

'चित्रा' हरसाई
धा धा आई
श्वेत श्याम आँचल में
बाँध के रखा था
खुल गए बन्ध।
बरस रही नेह धार
धरती तर तरल तरल।

harsingar

हरसिंगार! तुमने बिखरा दिए
तज दिए साज शृंगार।
ये जो भूमि पर बिखरे हैं
जो रह गए अटके ही
मेरी पूजा के ही पुष्प हैं !
जिन्हें बीनते हैं लोग
देवी की आराधना हेतु।
जिन्हें यूँ ही बिखेर दिया -
पूरे परिवेश में
उन्हें
मैं किस हेतु सहेजूँ?
किसके लिए??

10 टिप्‍पणियां:

  1. ..मुझे लगता है कि चित्र लगाने से पाठक की कल्पना का दायरा उसी में सिमट कर रह जाता है।

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  2. @
    'चित्रा' हरसाई
    धा धा आई
    श्वेत श्याम आँचल में
    बाँध के रखा था
    खुल गए बन्ध।
    बरस रही नेह धार
    धरती तर तरल तरल।
    ---जायसी के यहाँ 'मघा' की धार है--

    बरसै मघा झकोरि-झकोरी
    मोरे दुनों नैन चुएं जस ओरी.

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  3. इन चित्रों से संबंधित वातावरण ने ही कवि को ये शब्द रचने की प्रेरणा दी है। ऐसा मुझे महसूस हो रहा है। शब्दों ने इस दश्य को और विस्तार दे दिया है।

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  4. जब कल्पना चित्र द्वारा सिमट जाती है तो थोड़ी गाढ़ी हो जाती है।

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  5. सुंदर प्रस्तुति....
    आपको
    दशहरा पर शुभकामनाएँ ..

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  6. वैसे भी भू अर्पित पुष्पं किस काम के चिरैया का बरसना सचमुच गजबे ढा गया !

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  7. पहले चित्र से आँख नहीं हट रही ..

    शाखों पे टेक हरसिंगार से
    अधिक मोहक
    आँगन में बिछे हुए ...

    शब्द सच्चे जान पड़ते हैं ...

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