रविवार, 24 अक्टूबर 2010

एक बार जाल और ... मिलने जुलने का सलीका

अपनी बहुत सुना लिए, आज दो दूसरों की (मुझे बहुत बहुत पसन्द हैं):

बुद्धिनाथ मिश्र 
श्री ललित कुमार के सौजन्य से यह गीत पूरा मिल गया:




गीत 

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो। 

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है,
हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है,
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है, 
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे, 
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है,
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे? 
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

कुमकुम सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है,
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
___________________________________ 

अज्ञात(आप को कवि का नाम ज्ञात हो तो बताइए)
देवता है कोई हममें न फरिश्ता कोई,
छू के मत देखना हर रंग उतर जाता है। 
मिलने जुलने का सलीका है जरूरी वर्ना
चन्द मुलाकातों में आदमी मर जाता है। 

15 टिप्‍पणियां:

  1. पंक्तियां बहुत ही सुन्दर है। मिश्र जी का यह गीत तो हम पहले भी सुन चुके हैं। क्या आप पूरा गीत यहां दे सकते हैं? बहुत खूबसूरत गीत है।

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  2. दोनों ही रचनाओं की अपनी-अपनी सुन्दरता है। साझा करने का धन्यवाद!

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  3. चन्दा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
    ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो!....

    सुन्दरतम !

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  4. आजकल बुद्धिनाथ मिश्रा जी बहुत पसंद किये जा रहे हैं ब्लॉगर्स द्वारा ...
    दोनों कवितायेँ अच्छी है ही ...
    मिलने जुलने का सलीका जरुरी है ...
    हमारे शहर का मिजाज़ देखिये ...
    " कोई हाथ भी ना मिलाएगा जो गले लगोगे तपाक से
    ये नए ज़माने का शहर है जरा फासले से मिला करो "...:)

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  5. @ NK Pandey
    पूरा ही तो नहीं मिल रहा! जाने कितने वर्षों से ढूँढ़ रहा हूँ। इतना मिला तो सोचा साझा कर दूँ।

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  6. कवितायें दोनों ही गहरी हैं, और पढ़वायें अपनी पसन्द की कवितायें।

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  7. @ एक बार जाल और फेंक रे मछेरे...
    माहिर हैं आप इसमें ।

    बुद्धिनाथ मिश्र कलेजा कुहुकाने वाले गीतकार हैं । खूब रुचते हैं मुझे भी ।
    गीत का आभार ।

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  8. dono hi kavitayein apni vishishthta liye hue hain,
    umeed hai apko aur apki pasand ke kaviyon ko padhne ka mauka milta rahega
    :)

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  9. "चन्द मुलाकातों में आदमी मर जाता है। " ध्यान रखना पड़ेगा.

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  10. @इसमें ज़माने को मिजाज़ पढ़ ले ... टाइपिंग मिस्टेक

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  11. आल टाईम जोरदार ....
    क्या मछलियों में फसने की चाह होती है ?
    इस कवि सत्य से हम सहमत नहीं ..वे चारा देख ललचाती हैं बस ,
    फंस गयी यह दीगर बात है ....नहीं तो चारा छापीं और चल दीं !
    उन्हें मछेरे से क्या लेना देना ? वैसे मछेरा भी उसे सोंन मछरी की तरह तो सेयेगा नहीं एक दिन गपक ही लेगा !
    अन्तर्ज्वाला कब तक सहेगा !

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  12. @ अरविन्द जी,
    बड़े रसहीन वैज्ञानिक हैं आप तो!

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  13. 'मिलने जुलने का सलीका है जरूरी वर्ना
    चन्द मुलाकातों में आदमी मर जाता है। '

    'अज्ञात कवि ने बहुत सही बात लिखी है .पंक्तियाँ पसंद आईं.

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  14. @यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे संपेरे..
    जाने किस नागिन में प्रीत की उचाह हो

    जीवन को समझाता गीत...

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