शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

हम हुए बुरधुधुर बढ़िया।

मित्रों और मित्रियों! अधोभाग की कविताएँ  वयस्कों के लिए है,बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं। 'परम' संस्कारवान लोगों के लिए भी नहीं हैं। संस्कारी लोगों के लिए(जो 'परम' से इतर हैं)  प्रेमकथा बरोबर चल रही है। जे बात और है कि कइयों को वो मजनू का भौंड़ापन लगती है। 
 ये कविताएँ उनके लिए भी नहीं हैं जो 'परम' पंडित हैं। ऐसे लोग जो एसी कमरे में बैठ कर किसी भी कवि की ऐसी तैसी करते हुए कविताओं को सहलाते रहते हैं, कृपया इन्हें न पढ़ें। देसज लोग ही इन्हें पढ़ें, वह भी अपने रिस्क पर! वे लोग भी पढ़ सकते हैं जिन्हें संझा भाखा, करकचही बोली, किचइन, औघड़ियों, जोगीड़ों और छायावादी पागलपन से घबराई गरम पकौड़ियों और खजोहरई की समझ है। ...न न ई कौनो रिएक्शन नहीं है। ऊ तो जब होगा तब होगा ही। असल में बाउ भी आजकल याद आने लगे हैं। तो...
 लस्टम पस्टम, ईश षष्टम,
 दुर्बी दुलाम दुलच्छणम 
भैंस चरे मसल्लमम। 
 कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं! दुखने दुखाने के लिए और भी कई चीजें हैं। 
अभी दुनिया दरिद्र नहीं हुई है, दिल को क्यों कष्ट देना?  
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(1) 
बड़े बड़े हैं छँटे कमीने 
बाईं तरफ को गिरे कमीने
तशरीफ उठा कर झुके कमीने
शरीफ नहीं ये कवि कमीने  
क्या बताऊँ क्यों हुए कमीने? 
किस कमी ने किया कमीने?


(2) 
बताव बबुनी! केकरा से कहाँ मिले जालू? 
टोह लेत लेत भइल सूगर बेकालू
बताव बबुनी! केकरा से कहाँ मिले जालू?

अरे सूगर बेरामी कइसे भइल?
रामा कइसे भइल?

बजावत बजावत गाले गालू    
बड़ी खइलीं हम भूजल कचालू।
वइसे भइल, रामा वइसे भइल 
     
अब त बताइ द कहाँ मिले जालू? 


(3) 
ऊ हो बढ़िया तूहूँ बढ़िया 
बढ़िया से जब मिल गए बढ़िया 
हम हुए बुरधुधुर बढ़िया।



12 टिप्‍पणियां:

  1. ऊ हो बढ़िया तूहूँ बढ़िया
    बढ़िया से जब मिल गए बढ़िया
    हम हुए बुरधुधुर बढ़िया|


    ரொம்போ நல்ல
    سبحان الله

    [हिन्दी अनुवाद: बहुत खूब (रोम्बो नल्ला), बहुत खूब (सुभान अल्ला)]

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  2. मेरे एक महा(परम नहीं कहूँगा। काशी का अस्सी याद आने लगता है) मित्र ने मेरे अनुरोध पर यह भाष्य किया है।
    बुरधुधुर का मायने हर एक की मन:स्थिति और साधनों की उपलब्धता पर बदलता रहता है। जिसे मिल जाता है वह शांत ....जिसे नहीं मिलता अशांत और जो एकदम से तीव्र ज्ञान के लिए बेकल हो जाता है और परम तत्व की प्राप्ति चाहता है वह बकबकाने लगता है। ऐसी ही स्थितियों - परिस्थितियों का मिश्रण है बुरधुधुर।
    समझने की कोशिश में अपने केशविहीन सिर को नोच रहा हूँ।

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  3. कविता और उसकी प्रस्तावना दोनों टिप्पणी निरपेक्ष ,परातीत हैं -
    आपको तो बिग बॉस में भाग लेना चाहिये ....कमनीय कंचन काया का सानिध्य आपको ऐसी
    और कविताओं के सृजन को उन्मुख करेगा ....मनोज भोजपुरी भैया जा रहे हैं कहिये तो सिफारिश करूं

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  4. भाग बुरधुधुर, ई खाली मजा लेने लायक पोस्ट है, टिप्पणी करने लायक नहीं...।

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  5. हुर्र बुरधुधुर, हम रात के साढ़े ३ बजे नींद से उठे... और अब बुरधुधुरई में नींद नहीं आएगी :)

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  6. काशीनाथ जी से उधार लिए शब्द में कहूँ तो "आ-चरण" बिगड रहा है.

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  7. इस तरह की पोस्टों से शायद मनसायन की बजाय कटरायन याद आ जाता है...क्यूं सिद्धार्थ जी :)

    लगता है आप केवल मजे लेने में वस्ताद हैं :)

    वैसे इस कविता को 'काशी का अस्सी' के तर्ज पर 'लखनऊ का नब्बे' कहना ज्यादा पसंद करूंगा....एकदम राप्चिक कविता है।

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  8. और इतना मान कर चलिए कि लस्टम पस्टम इज द बेसिक फिनामिना ऑफ ब्लॉगिंग ।

    You cant deny these kinds of कटरायन :)

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  9. मस्त है।
    सही बात तो यही है कि मेरा भी मन करता है कि ऐसे ही सीधे-सीधे लिखूँ..बगैर लाग लपेट के..मगर शराफत का चोला रोक देता है..आप के इस लेखन ने उर्जा दी है..शायद कभी प्रकट हो।
    आपका यही अंदाज आपको 'आम' से अलग करता है..

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  10. ओह का करें !
    ई बुरधुधुर तो समझने में अपन का भी केश नुच रहे हैं !
    'शराफत का चोला' सही कहा देवेन्द्र जी ने !
    गुरु , आप जब शराफत की 'चोली' उतार करेंगे तो भौंडे ही तो कहे जायेंगे ! :) |

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