... मैंने तुम्हें पढ़ना छोड़ दिया है,
नहीं देख सकता तुम्हें यूँ चुकते हुए।
तुम्हारे वे शब्द जिनमें जीवन टहलता था,
प्रसिद्धि के गलियारों में भटक गए हैं।
नहीं देख सकता तुम्हें यूँ चुकते हुए।
तुम्हारे वे शब्द जिनमें जीवन टहलता था,
प्रसिद्धि के गलियारों में भटक गए हैं।
मेरे घुटने अब दर्द करते हैं,
तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।
तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।
ऐसे ही एक दिन पत्रों की पिटारी खोली
उनमें शब्द अभी भी छलकते हैं
मैंने उन पर हाथ जो फेरा,
अंगुलियाँ नीली हो गईं
जाने क्यों उन आँखों में सीलन सी लगी
जिनमें 'टियर ड्रॉप' डालने को डॉक्टर ने बताया है।
उनमें शब्द अभी भी छलकते हैं
मैंने उन पर हाथ जो फेरा,
अंगुलियाँ नीली हो गईं
जाने क्यों उन आँखों में सीलन सी लगी
जिनमें 'टियर ड्रॉप' डालने को डॉक्टर ने बताया है।
स्क्रीन पर तुम्हारी लिखाई नहीं देख पाता
चकाचौंध से आँखों में किचमिची सी होती है
तब जब कि मेरे मन ने कहा है -
"तुम उससे जलते हो।"
मेरे हाथ में तुम्हारे वही छ्लकते पत्र हैं
इन्हें आज तक क्यों नहीं जला पाया?
चकाचौंध से आँखों में किचमिची सी होती है
तब जब कि मेरे मन ने कहा है -
"तुम उससे जलते हो।"
मेरे हाथ में तुम्हारे वही छ्लकते पत्र हैं
इन्हें आज तक क्यों नहीं जला पाया?
इसे पढ़कर एक गीत याद करने का प्रयास कर रहा हूँ...शायद 'शिव अम्बर ओम' का लिखा है...ठीक से याद नहीं..
जवाब देंहटाएंकर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिंत रहना
धुंध डूबी घाटियों में इंद्रधनु तुम
छू लिए लिए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समुंदर
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिंत रहना
...शायद प्रेम पाश से मुक्ति का यही मार्ग है।
आपकी यह कविता बहुत अच्छी लगी... विशेष कर पहला पैरा... उदय प्रकाश ने कहा है ९९ प्रतिशत चमकदार नाम अब गतिया लेखन कर रहे हैं.. सच में एक दौर ऐसा आता है जब प्रसिध्ही के कारण उनको ज्यादा पढ़ा जाता है जबकि गुणवत्ता और मौलिकता खोटी जाती है.. आपने उसे सुन्दर शब्द दिए हैं.. अंतिम पैरा तो "तेरे खुशबु में बसे ख़त मैं जलाता कैसे" की याद दिला रहा है... देवेन्द्र जी की भी टिपण्णी सुन्दर है.
जवाब देंहटाएंनयेपन की धार थी, जो छोड़ चुके तुम,
जवाब देंहटाएंसत्ता के मंचों से नाता जोड़ चुके तुम।
ये लाइनें मन के अजीब से अंतर्द्वन्द्व को अभिव्यक्त करती हैं
जवाब देंहटाएं" तब जब कि मेरे मन ने कहा है -
"तुम उससे जलते हो।"
मेरे हाथ में तुम्हारे वही छ्लकते पत्र हैं
इन्हें आज तक क्यों नहीं जला पाया?"
सच में बहुत अच्छी लगी कविता.
@
जवाब देंहटाएं... मैंने तुम्हें पढ़ना छोड़ दिया है,
नहीं देख सकता तुम्हें यूँ चुकते हुए।
तुम्हारे वे शब्द जिनमें जीवन टहलता था,
प्रसिद्धि के गलियारों में भटक गए हैं।
मेरे घुटने अब दर्द करते हैं,
तुम्हारे साथ नहीं चल सकता।
...प्रसिद्धि अपनी पूरी कीमत वसूलती है. सबसे पहला शिकार होती है-- रचनात्मकता. रचनात्मकता के सहारे मिली प्रसिद्धि को बचाए रखने के लिए जो भी कुछ किया जा रहा है वह टोटका ज्यादा है, सृजन कम.
"मैंने तुम्हें पढ़ना छोड़ दिया है,
जवाब देंहटाएंनहीं देख सकता तुम्हें यूँ चुकते हुए।
hmmmmmmm............किसके लिये है ?????
इन पंक्तियों के गहरे अर्थ समझने की कोशिश कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंबहुत गहन ,,,, वाह!
जवाब देंहटाएंपत्रों को न जला पाने की व्यथा पर जाने कितने गीत कितनी कवितायें लिखी गईं लेकिन इस कविता में जो शब्दों भावों और उनकी भौतिकता के साथ आत्मीयता का सहज सम्बन्ध दिखाई देता है वह उन सारी कविताओं के बनावटीपन को खारिज कर देता है ।
जवाब देंहटाएंबहुत पसन्द आया
जवाब देंहटाएंहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
phir bhi main apko padh raha hoon...
जवाब देंहटाएंuttam rachna.
:)
कुछ बताएगें भी माजरा क्या है कविता की प्रेरणा कौन है ?
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