शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

पसीना

(1) 
पसीना 
टेबल पर टपकता है। 
खेत में टपकता है। 
फर्श पर टपकता है। 
दिन भर काम करते थक जाता है -
बिस्तर में रिसता है।

(2) 
पसीना 
निकलता निर्गन्ध है ।
हवा, इत्र, फुलेल, साबुन
बिगाड़ देते हैं आदत। 
कुछ भी कर लो 
गन्धाता रहता है। 


(3) 
जब डूब जाता है पैसा मार्केट में। 
जब परीक्षा के सवाल
किताबी याददाश्त गुम कर देते हैं।
जब फुलाई सरसो 
रातो रात लाही से मार जाती है। ...
बिना परवाह किए कि 
बाहर जाड़ा है, गर्मी है कि बरसात 
पसीना निकलता है, 
हवा से जुगलबन्दी करता है 
और धीरे से दे जाता है
फिर से उठने लायक साँस।


(4) 
बाहर की दिन भर की चखचख
रोज गन्दे होते घर की सफाई
धीरे धीरे घिसते रहते हैं रिश्ते को।
इससे पहले कि रिश्ता दरके  
पसीना रातों को प्रीत के लेप लगाता है 
और सुबह तैयार हो जाती है - 
एक दिन भर चखचख 
एक दिन भर गन्दगी 
झेलने को। 
  

16 टिप्‍पणियां:

  1. जिसने पसीना नही बहाया उसने जीना ही नही सीखा। वाकई पसीना हमे जीना सिखाता है। बहुत अच्छी लगी कविता खास कर आखिरी पहरा। शुभकामनायें

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  2. गिरिजेश भाई साहब, आप की यह पोस्ट कल सुबह की ब्लॉग वार्ता के लिए ले रहा हूँ आशा है आपको कोई ऐतराज़ नहीं होगा ! बताना जरूरी था क्यों कि आपका ऐसा आदेश था ! आपका नंबर नहीं है मेरे पास नहीं तो आपको फोन कर अनुमति ली होती मैंने !

    आपकी यह रचना बेहद उम्दा लगी !

    सादर आपका |

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. बल्कि सर्वहारा चेतना की एक नयी कविता ,दलित चेतना वाले इस पर अपना दावा न ठोकें तो !

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  5. हर टपके पसीने की बूँद कुछ न कुछ सिखा जाती है जीवन में।

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  6. स्वेदन? न, एक उत्कृष्ट रचना का आस्वादन!

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  7. आपकी कवितायें खुद ही खड़ी हो जाती हैं, अपना मर्म बताती हैं और खड़े कर देती कुछ और प्रश्न भी..!

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  8. इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं। सटीक बिंब आपके काव्‍य-शिल्‍प को अधिक भाव व्‍यंजक बना ही रहे हैं। जमीनी सच्‍चाइयों से गहरा परिचय, आपके कवि मन की ताकत है। व्‍यापक सरोकार निश्चित रूप से मूल्‍यवान है।

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  9. पसीना
    किसान का
    मजदूर का
    अलग है उस पसीने से
    जो
    परीक्षा कक्ष में छूटता है
    कठिन सवाल से

    और उससे तो बिल्कुल अलग है
    जो ए.सी. बंद हो जाने पर माथे पर उग आता है

    थोड़ा पसीना कविता पढ़कर भी आया
    दुबारा पढ़कर
    थोड़ा समझ में आया
    लो मैंने
    कैसा तुक से तुक मिलाया

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  10. @ सिद्धार्थ :)
    चारो खण्ड पसीने के अलग अलग निरूपण हैं। एक दूसरे से अलग।

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  11. श्रम के प्रकारों पर निर्भर करता है, पसीने की गंध।...अच्छी कविताएं।

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