(1)
पसीना
टेबल पर टपकता है।
खेत में टपकता है।
फर्श पर टपकता है।
दिन भर काम करते थक जाता है -
बिस्तर में रिसता है।
(2)
पसीना
निकलता निर्गन्ध है ।
हवा, इत्र, फुलेल, साबुन
बिगाड़ देते हैं आदत।
कुछ भी कर लो
गन्धाता रहता है।
(3)
जब डूब जाता है पैसा मार्केट में।
जब परीक्षा के सवाल
किताबी याददाश्त गुम कर देते हैं।
जब फुलाई सरसो
रातो रात लाही से मार जाती है। ...
बिना परवाह किए कि
बाहर जाड़ा है, गर्मी है कि बरसात
पसीना निकलता है,
हवा से जुगलबन्दी करता है
और धीरे से दे जाता है
फिर से उठने लायक साँस।
(4)
बाहर की दिन भर की चखचख
रोज गन्दे होते घर की सफाई
धीरे धीरे घिसते रहते हैं रिश्ते को।
इससे पहले कि रिश्ता दरके
पसीना रातों को प्रीत के लेप लगाता है
और सुबह तैयार हो जाती है -
एक दिन भर चखचख
एक दिन भर गन्दगी
झेलने को।
जिसने पसीना नही बहाया उसने जीना ही नही सीखा। वाकई पसीना हमे जीना सिखाता है। बहुत अच्छी लगी कविता खास कर आखिरी पहरा। शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंगिरिजेश भाई साहब, आप की यह पोस्ट कल सुबह की ब्लॉग वार्ता के लिए ले रहा हूँ आशा है आपको कोई ऐतराज़ नहीं होगा ! बताना जरूरी था क्यों कि आपका ऐसा आदेश था ! आपका नंबर नहीं है मेरे पास नहीं तो आपको फोन कर अनुमति ली होती मैंने !
जवाब देंहटाएंआपकी यह रचना बेहद उम्दा लगी !
सादर आपका |
achaa wiwechan
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसर्वहारा चेतना की कविता :)
जवाब देंहटाएंबल्कि सर्वहारा चेतना की एक नयी कविता ,दलित चेतना वाले इस पर अपना दावा न ठोकें तो !
जवाब देंहटाएंहर टपके पसीने की बूँद कुछ न कुछ सिखा जाती है जीवन में।
जवाब देंहटाएंस्वेदन? न, एक उत्कृष्ट रचना का आस्वादन!
जवाब देंहटाएंआपकी कवितायें खुद ही खड़ी हो जाती हैं, अपना मर्म बताती हैं और खड़े कर देती कुछ और प्रश्न भी..!
जवाब देंहटाएंइस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं। सटीक बिंब आपके काव्य-शिल्प को अधिक भाव व्यंजक बना ही रहे हैं। जमीनी सच्चाइयों से गहरा परिचय, आपके कवि मन की ताकत है। व्यापक सरोकार निश्चित रूप से मूल्यवान है।
जवाब देंहटाएंpsina hai jo jeena seekhata hai.....Bdhai....
जवाब देंहटाएं3,4..हद उम्दा।
जवाब देंहटाएंपसीना
जवाब देंहटाएंकिसान का
मजदूर का
अलग है उस पसीने से
जो
परीक्षा कक्ष में छूटता है
कठिन सवाल से
और उससे तो बिल्कुल अलग है
जो ए.सी. बंद हो जाने पर माथे पर उग आता है
थोड़ा पसीना कविता पढ़कर भी आया
दुबारा पढ़कर
थोड़ा समझ में आया
लो मैंने
कैसा तुक से तुक मिलाया
@ सिद्धार्थ :)
जवाब देंहटाएंचारो खण्ड पसीने के अलग अलग निरूपण हैं। एक दूसरे से अलग।
श्रम के प्रकारों पर निर्भर करता है, पसीने की गंध।...अच्छी कविताएं।
जवाब देंहटाएं....झलकीं भरि भाल कनी जल की ....
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